दो दिल जुदा हुए हैं, बड़ी दूर जा रहे हैं,
आकर कोई तो रोक ले, सदा लगा रहे हैं।
दुनिया की साज़िशें हैं, बड़ी मार-काट की,
तूफान का समय है, दिए टिम-टिमा रहे हैं।
षणयंत्र रचे जा रहे, हर कूचा-ए-गली में,
दानिशवर बैठे हुए मातम मना रहे है।
जहां प्यार की उंमग थी वहां खौफ है तारी,
रिश्तों का खून करके वोह सेजे सजा रहे हैं।
खेतों को बाड़ लुटे तो तूफाँ की क्या ज़रूरत,
रखवाले लूटने की जो अदा निभा रहे हैं।
भेड़ो की खाल में है हर तरफ यह भेड़िये,
खुद शांति के नामवर आतंक मचा रहे हैं।
इक साथ खेल-कूद कर हुए थे जो जवां
वही आज अलग अपनी बस्तियां बसा रहे हैं।
नफरत का साथ छूटे तो कुछ सिलसिला चले,
हर तरफ तो नफरत के गीत लिखे जा रहे हैं।
यह डोर टूट गई, तो फिर जुड़ ना पाएगी,
इसे थामने को हाथ बहुत थोड़े आ रहे हैं।
धीमी ही सही आस की यह लौ जली तो है,
दिवाने आज दरिया पे सीने अड़ा रहे हैं।
कुछ बुलबुलें चलीं है, समंदर पे पुल बनाने,
कुछ इश्क के परवाने शहर जगमगा रहे हैं।
- शाहनवाज़ सिद्दीकी "साहिल"
Keywords:
Ghazal, Heart, Hindi Kavita, Love, Terrorism, हिंदी ग़ज़ल
अच्छी सोच और उम्दा प्रस्तुती ,ब्लॉग और ब्लोगिंग का सही उपयोग /
ReplyDeleteहौसला अफजाई के लिए धन्यवाद झा जी!
ReplyDeleteअफसोस बहुत पुराने धर्म ही आजकल नफरत फैलाने का आधार बन गये हैं। एक समझदार दृष्टि की जरूरत आज, कल और परसों - हमेशा रहेगी। हमेशा ओल्ड गोल्ड नहीं होता, अक्सर तो सड़ा गला कचरा ही होता है, तो इसका इस्तेमाल खाद की तरह करें, ये भी एक समझदारी है... नहीं शाहनवाज भाई।
ReplyDelete@ Rajey Sha ji,
ReplyDeleteधर्म तो नहीं लेकिन समय के साथ हमारी सोच या यह कहें की जो हमने धर्म आधारित संप्रदाय बना लिए हैं वह ज़रूर सड़े-गले हो सकते हैं. आज ज़रूरत है, सही परिप्रेक्ष में धर्म के उसूलों को समझा जाए और अपनी समझ को परिपक्व बनाया जाए.
bahut khoob...............
ReplyDeletebahut umda.........
shaandaar gazal !
भेड़ो की खाल में है हर तरफ यह भेड़िये,
ReplyDeleteखुद शांति के नामवर आतंक मचा रहे हैं।
बहुत बढिया
लाजवाब
सच कहा आपने लूटने वाले तो यहाँ रखवाले ही है
ReplyDeleteकाश हर आम आदमी यह सब समझ सकता. अगर समय रहते इन मुठ्ठी भर लोगों को सबक नहीं सिखाया गया तो ना जाने ये लोग नफ़रत की दीवार को और कितनी चौड़ी कर देंगे. शाहनवाज़; तुमने बहुत दर्द महसूस का के लिखा है. बहुत बहुत बधाई. हमारे देश को आज ऐसे ही विचारधारा वाले लोगों की जरुरत है.
ReplyDeleteबहुत शानदार गजल
ReplyDeleteबहुत बढिया, लाजवाब!
ReplyDeleteशाहनवाज भाई यहाँ तो आपने सच में आँखे भिगोने वाली बाते लिख है!
ReplyDeleteहर एक पंक्ति लाजवाब है!आपके साहिल होने का भी पता चल गया!
कुंवर जी,
....लाजवाब !!!
ReplyDeleteयह डोर टूट गई, तो फिर जुड़ ना पाएगी,
ReplyDeleteइसे थामने को हाथ बहुत थोड़े आ रहे हैं।
उम्मीद की यह लौ बड़ी धीमी सी है ‘साहिल’,
दिवाने आज दरिया पे सीने अड़ा रहे हैं।
Ati Sundar aur bahut hi bhawnatmak Ghazal hai Shahji
ReplyDeleteVery Nice! who poem is so patriotic.
ReplyDeleteक्या कहूँ , निश्बद कर दिया है आपने , बस समझिए कि आज की पोस्ट दिल को छू गयी , उम्दा ।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है...एक एक शेर दिल को छूता सा
ReplyDeleteषणयंत्र रचे जा रहे, हर कूचा-ए-गली में,
और दानिशवर बैठे हुए मातम मना रहे है।
यही हो रहा है आज कल...
नफरत का साथ छूटे तो कुछ सिलसिला चले,
हर तरफ तो नफरत के गीत लिखे जा रहे हैं।
बस इसी की ज़रूरत है....बहुत खूब लिखा है....
मेरे ब्लॉग पर आने का बहुत बहुत शुक्रिया
gret
ReplyDeleteachhi rachna...
ReplyDeleteयह डोर टूट गई, तो फिर जुड़ ना पाएगी,
ReplyDeleteइसे थामने को हाथ बहुत थोड़े आ रहे हैं।
बहुत उम्दा भाईजान
बहुत बढिया गजल है...बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteयह डोर टूट गई, तो फिर जुड़ ना पाएगी,
इसे थामने को हाथ बहुत थोड़े आ रहे हैं।
बेहतरतीन ग़ज़ल है भाई!बधाई!
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