"दशकों से तानाशाही झेल रहे लोग अब देखना चाहते हैं लोकतंत्र"
कट्टरपंथ में जकड़े एवं तानाशाही का दंश झेल रहे अरब महाद्वीप की जनता में अचानाक आए गुस्से के इस उबाल के गहरे मायने हैं, जिसके चलते तानाशाहों की सत्ता की चूलें हिलने लगीं हैं। पुरे अरब महादीप में फैले इन तानाशाओं को जनता जनार्दन के इशारों को समझ कर अपने आप ही सत्ता से दूरी बना लेनी चाहिए। दिसंबर माह में मोहम्मद बौजीजी के आत्मदाह करने के बाद ट्यूनीशिया की जनता में सरकार के खिलाफ क्रांति की चिंगारी भड़क उठी थी। खाद्य वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, बेरोजगारी और अन्य समस्याओं के कारण मध्य जनवरी तक धरना-प्रदर्शनों का दौर जारी रहा।
राष्ट्रपति जैनुअल अबीदेन बेन अली 23 साल तक ट्यूनीशिया की सत्ता पर काबिज़ रहे, आखिरकार जनता ने जैस्मीन क्रांति के द्वारा ऐसा सबक सिखाया कि देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। क्रांति की यह फिज़ा उत्तर अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया से मिस्र तक कब पहुँच गई किसी को खबर ना हुई। मिस्र के लोग भी तानाशाही को तीस वर्षो से झेलते-झेलते थक चुके थे। जैस्मीन क्रांति से उन्हें भी एक नई राह दिखाई दी, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं भुखमरी से त्रस्त मिस्र के जनता ने तानाशाही और दमन के खिलाफ बिगुल बजा कर मुबारक सरकार को उखाड़ फैका।
राष्ट्रपति जैनुअल अबीदेन बेन अली 23 साल तक ट्यूनीशिया की सत्ता पर काबिज़ रहे, आखिरकार जनता ने जैस्मीन क्रांति के द्वारा ऐसा सबक सिखाया कि देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। क्रांति की यह फिज़ा उत्तर अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया से मिस्र तक कब पहुँच गई किसी को खबर ना हुई। मिस्र के लोग भी तानाशाही को तीस वर्षो से झेलते-झेलते थक चुके थे। जैस्मीन क्रांति से उन्हें भी एक नई राह दिखाई दी, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं भुखमरी से त्रस्त मिस्र के जनता ने तानाशाही और दमन के खिलाफ बिगुल बजा कर मुबारक सरकार को उखाड़ फैका।
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हालाँकि हुस्नी मुबारक ने कई सुधार-वादी कदम उठाए थे, जिसके तहत कैबनेट को भंग करके वायुसेना प्रमुख को प्रधानमंत्री तथा गुप्तचर प्रमुख को उपराष्ट्रपति बनाया गया। लेकिन लोगो के गुस्से की आग शांत होने की जगह और भी अधिक भड़कती गई, क्योंकि उनके मन में तानाशाही से छुटकारे की उमंगें अंगडाइयां ले रही थी। चौकाने वाली बात यह थी सउदी अरब शाह के हुस्ने-मुबारक और बेन अली के समर्थन में उतर आने का भी दोनों देशों की जनता पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ट्यूनीशिया से शुरू हुई इस आग की तपिश धीरे-धीरे यमन और जोर्डन में भी महसूस होने लगी है। असंतोष और राजनीतिक बदलाव की यह बयार मिस्र के बाद अब जंगल की आग की तरह मध्य-पूर्व देशों में फैलती जा रही है। मिस्त्र और टयूनीशिया में लोगों के धरना-प्रदर्शनों से मिली कामयाबी को देखते हुए मध्य पूर्व के अन्य देशों की जनता को भी इस राह पर कामयाबी नज़र आ रही है।
यमन के राष्ट्रपति अली अब्दुल्ल सलेह को भी घोषणा करनी पड़ी कि वर्ष 2013 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में वह शामिल नहीं होंगे। बीस वर्षो तक शासन करने वाले सलेह पिछले तीन हफ्तों से लोगों के धरना-प्रदर्शन का सामना कर रहे है। यह देखना रोचक होगा कि राष्ट्रपति द्वारा दी गई रियायतों से लोग कहां तक प्रभावित होते है! प्रदर्शनकारियों की मांग है कि सुधार को लेकर किए गए वादें लागू हों। उधर जॉर्डन की जनता भी पूरी तरह से राजनीतिक बदलाव के लिए जूझ रही है। जार्डन में लोगों के विरोध प्रदर्शनों के भय से शाह अब्दुल्ला द्वितीय ने सुधारों को लागू करने के लिए नई सरकार की जरूरत बताते हुए अपने पूरे मंत्रिमंडल को भंग करके नई सरकार के गठन करने की घोषणा की थी।
लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी तो जनता के द्वारा किये जा रहे प्रदर्शनों को हिंसक तरीके से कुचलने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। लीबिया में हुए खून-खारबे की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई आलोचना पर उन्होंने कहा कि उन्हें किसी की आलोचना की परवाह नहीं है। इस बीच उनके देश छोड़कर भाग जाने की अफवाहें भी उडती रही। उन्होंने अपने समर्थकों से बाहर आने और सड़कों की सुरक्षा करने का आह्वान किया है, हालाँकि उनके इस आह्वान से देश में हिंसक मुठभेड़ों की आशंका बढ़ गई है। देखने वाली बात यह है कि वह कब तक जनता की उम्मीदों के खिलाफ सत्ता पर ज़बरदस्ती कब्ज़े को बरकरार रख पाते हैं।
सीरिया में अभी प्रदर्शनकारी सड़कों पर नहीं आए है लेकिन सोशल नेटवर्किग वेब साईट्स पर लोगों में सरकार विरोधी सुगबुगाहट शुरू हो गई है। रिपोर्ट के अनुसार सीरियावासी भी आजादी और नागारिक अधिकारों को हासिल करना चाहते है। सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असाद का कहना है कि असंतुष्टों से उन्हे कोई भय नहीं है क्योंकि उनकी सरकार लोगों के सहयोग से चल रही है। सुडान के राष्ट्रपति उमर अल बसीर को भी हाल ही में हुए जनमत संग्रह से गहरा झटका लगा है जिसमें अधिकतर लोगों ने उत्तरी सुडान से अलग होने की इच्छा जताई थी।
अरब देशों के तानाशाहों से त्रस्त आ चुकी जनता के गुस्से के उबाल में शासकों के भ्रष्टाचार और अमेरिका के वरदहस्त ने आग में घी का काम किया है। ज्ञात रहे कि 1979 में ईरान के शाह रजा पहलवी को भी इसी तरह सत्ता से बेदखल कर दिया गया था। अमेरिका सहित पश्चिम जगत में यह भी आशंका जताई जा रही है कि प्रदर्शनों और सत्ता परिवर्तनों का फायदा मिस्र के मुसलिम ब्रदरहुड जैसे कट्टरपंथी संगठन ना उठा लें। हालाँकि इन संगठनों ने अभी तक सत्ता पाने की हड़बड़ी नहीं दिखाई है। बात अगर मुस्लिम ब्रदरहुड की करें तो मिस्र में प्रतिबंधित यह संगठन अरब जगत के सबसे पुराने इस्लामी संगठनों में से एक है। ज्ञात रहे कि अरब देशों के सभी कट्टरपंथी संगठन अमेरिका के धुर-विरोधी है, शायद इसीलिए अमेरिका नहीं चाहता कि सत्ता परिवर्तनों की सूरत में कट्टरपंथी संगठनों को नेतृत्व का मौका मिले। मिस्र के मुसलिम ब्रदरहुड और लेबनान के चरमपंथी संगठन हिजबुल्ला में आंतरिक सम्बन्ध है, वहीँ इन दोनों के गाजा के हमास जैसे अन्य चरमपंथी संगठनों से गहरे सम्बन्ध हैं। अमेरिका कि चिंता यह है कि अगर सत्ता की कमान इनके हाथों में आई तो पूरे क्षेत्र में इजरायल विरोधी लहर फैल सकती है। मुसलिम ब्रदरहुड सन 1928 में स्वरुप में आया था, इस संगठन पर मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति कर्नल नासिर की हत्या की कोशिश और राष्ट्रपति अनवर सदात की हत्या जैसे संगीन आरोप हैं। पूर्व राष्ट्रपति मुबारक ने मुस्लिम ब्रदरहुड पर बैन लगा रखा था, हालांकि संगठन इन आरोपों को खारिज करता है। दिलचस्प बात यह कि प्रतिबन्ध के बावजूद 2005 में हुए चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों के सहारे ब्रदरहुड ने 20 फीसदी सीटों पर कब्जा किया था।
इन सब अटकलों के बीच बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि क्या इस क्रांति से यह मतलब निकला जाए कि अरब देशों की जनता भी इंडोनेशिया अथवा मलयेशिया की तरह लोकतंत्र की ओर बढ़ रही है?