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यह दिल्ली को क्या हुआ?

अब ना वह भीड़-भाड़ और ना गहमा-गहमी,
हर तरफ शान्ति है और है सन्नाटा

(दैनिक हरिभूमि (23 अक्तूबर के संस्करण) में प्रष्ट न. 4 पर मेरा व्यंग्य)
दिल्ली वापिस आए तो सर चकरा गया। पहले-पहल तो लगा ही नहीं की दिल्ली में हैं और विचार किया कि किसी से पता करते हैं कि भाई यह कौन सा शहर है? लेकिन एक-दो पुरानी इमारते देखकर लगा कि इनको पहले भी देखा हुआ है, लेकिन यह रातो-रात नई कैसे हो गई? कल तक तो लगता था कि कभी भी गिर जाएंगी। सड़क पर ब्लू लाईन बस भी नज़र नहीं आईं, कहीं हड़ताल तो नहीं है? चमचमाती लो-फ्लोर बसें दौड़ती दिखाई दी, लेकिन हमारे हाथ देने पर एक ड्राइवर ने भी मुंह उठा कर नहीं देखा, पता चला कि यह कॉमनवेल्थ के खिलाड़ियों के लिए है! मुंह मसोस कर ऑटो ले लिया, पर यह क्या? आधी सड़क बिलकुल खाली है, लोग क्या पागल हो गए हैं? सड़क की एक लेन खाली पड़ी है और उसमें कोई गाड़ी नहीं घुसा रहा है, अपने दिल्ली वाले तो जगह ना हो तब भी गाड़ी घुसा लेने में माहिर हैं! ऑटो वाले ने सवाल दागा, "साब किसी ने मरना है क्या?" "अरे यार, खाली जगह पर गाड़ी चलाने की बात कर रहा हूँ, इसमें मरने की क्या बात?" "मरने की ही तो बात है साब, वहां गाड़ी चलाने में चालान ही नहीं बल्कि जेल भी जाना पड़ेगा।" हम खिसियाकर बोले "क्यों मज़ाक करते हो? सड़क की खाली जगह पर गाड़ी चलाने में जेल!" वोह भी तपाक से बोला "अरे साहब, वहां केवल खिलाड़ी ही चल सकते हैं। वैसे इस बार हमारे खिलाड़ियों ने भी कमाल कर दिया, हर खिलाड़ी सोने के मेडल जीतने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है।" हम भी लगे अपनी अक्लमंदी दिखाने "क्यों ना करेंगे मेहनत? सोने के दाम भी तो कितनी तेज़ी से बढ़ रहे हैं, आसमान छू रहें मियां, आसमान!"

अच्छा वैसे तो शहर में पुलिस नज़र आती ही नहीं है, ट्रैफिक पुलिस भी पेड़ के पीछे छुप कर शिकार करती है! लेकिन यहां का नज़ारा देखकर दिल घबराने लगा, चप्पे-चप्पे पर पुलिस देखकर पेट में घुड़घुड़ाहट होने लगी! कहीं फिर से शहर में कोई आतंकवादी हमला तो नहीं हो गया है? फिर दिमाग ने थोड़ी मेहनत करके सुझाया कि झगड़े होने का खतरा लगता है! "हंस क्यों रहे हो? कभी-कभी अपना दिमाग़ भी मेहनत कर लेता है यार! अब इसमें कोई कूडा़ थोड़े ही भरा है?" कूड़े से सड़क पर ध्यान गया और उछल कर सर ऑटो की छत पर जा लगा! यह क्या? कहीं दूर-दूर तक कूडे का नामोनिशान तक नहीं है। हमारा नगर निगम और इतनी सफाई! ऊपर से सड़क पर इतनी कम भीड़ कि चलने का मज़ा ही किरकिरा हो जाए! गाड़ियों के हार्न से मनोरंजन के इतने आदि हो चुके हैं कि संगीत की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। लेकिन ना जाने क्यों शोर बिलकुल नहीं है? लाल बत्ती तक पर आज किसी को पहले भागने की जल्दी नहीं है। कितनी जिंदादिल थी दिल्ली? कुछ तो जोश में हरी बत्ती हुए बिना ही निकल जाते हैं, लेकिन लोगों में जोश गायब है, आज दिल्ली में कितना नीरसपन है? दिल्ली पहले कितनी हंसीन थी!

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