छात्रों पर मार्क्स लाने का प्रेशर और परिणाम
सही नीयत, अच्छी सोच, सही योजना और अधिकार के बावजूद लागू न करना
क्योंकि अगर हम अपनी सोच के हिसाब से ही सबकुछ करने लग जाएँगे तो उनकी ज़िंदगी के कोई मायने नहीं रह जाएँगे जो कि हमारे फ़ैसले से प्रभावित हो रहे होंगे। भले ही हमारी कोशिश उन्हीं की ज़िंदगी सुधारने की ही क्यों ना हो…
इस बात को एक उदाहरण से समझने कि कोशिश करते हैं, अपनी ज़िंदगी में हम अगर घर के बेटे के तौर पर देखते हैं कि हमारी मां और हमारी पत्नी हमारी सोच के ख़िलाफ़ चल रही होती है। हमें लगता है कि माँ इस तरह चले और पत्नी उस तरह चले तो घर का माहौल ख़ुशगवार हो जाएगा। आपसी खींचतान ख़त्म हो जाएगी।
यहाँ हमारा मक़सद भी सही होता है, पर अगर हम अपनी सोच उनके ऊपर ज़बरदस्ती थोपते हैं, तो उनकी ज़िंदगी के मायने ख़त्म हो जाते हैं। उन दोनों का अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने का हक़ ख़त्म हो जाता है। हमारे ज़बरदस्ती कंट्रोल करने से झगड़े या फिर खींचतान तो ख़त्म हो सकती है, पर ज़िंदगी में जो लुत्फ़ आना चाहिए वो खो जाता है। क्योंकि इसके लिए उन दोनों को अपनी पर्सनेलिटी को ख़त्म करना पड़ता है। इंसान को फ़ितरत ही ऊपर वाले ने ऐसी बनाई है।
हालाँकि ऐसे में आप कुछ और भी कर सकते हैं, जैसे कि किचकिच से तंग आकर संयुक्त परिवार से विद्रोह करके अलग रह सकते हैं, पर इसमें भी आप एक ही पक्ष को खुश रख पाते हैं और दूसरे के साथ अन्याय करते हैं। और यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम उनके साथ न्याय करें, जिनका हमारे ऊपर हक़ है!
ला इलाहा और इल्लल्लाह का तात्पर्य
इस कलमा/कथन का तात्पर्य ही यह है कि किसी नास्तिक या फिर आस्तिक के पुत्र/पुत्री तब तक धार्मिक नहीं है जब तक कि उसे अपने रब यानी creater में आस्था पैदा नहीं होती है। मतलब मुस्लिम के बच्चे मुस्लिम, हिंदू के बच्चे हिंदू, सिख के बच्चे सिख, ईसाई के बच्चे ईसाई, यहूदी के बच्चे यहूदी हरगिज़ नहीं हो सकते हैं जब तक कि उनके अंदर कलमें के पहले पार्ट के बाद वाली उत्सुकता पैदा नहीं हो और वो दूसरे पार्ट की खोजकर करके उसके ऊपर आस्था ना ले आए!
मतलब उसे रिसर्च करनी चाहिए कि क्या उसका कोई रब है या नहीं और जब दिल इस बात पर विश्वास कर ले कि हां कोई उसका रब/creater है तब उसे अपने रब को खोजना चाहिए और जब उसकी खोज पूरी हो जाए तो अपनी जिंदगी उसकी मर्ज़ी से गुज़ारनी चाहिए।
विश्वास कीजिए कि जिसने भी इस प्रोसेस को अपनाया उसकी मौत इससे पहले आ ही नहीं सकती है जब तक कि उसके रब की हकीकत साफ़ साफ़ उसके सामने ज़ाहिर नहीं हो जाए, क्योंकि फिर ज़िम्मेदारी आपकी नहीं आपके रब की है!
पर यह प्रोसेस कोई धर्म का दुकानदार हमें नहीं बताएगा, क्योंकि फिर आपसी दुश्मनियां और धर्म की लड़ाइयां खत्म हो जाएंगी, मतलब उनकी दुकानदारी खत्म हो जाएगी। जिसके ज़रिए वो अपना पेट भरते हैं या फिर सत्ता चलाते हैं। वैसे सत्ता सिर्फ देश/राज्य की ही नहीं होती है, बल्कि घर की, मौहल्ले की, एरिया की, किसी ग्रुप की या फिर कौम की भी होती है।
प्रेशर में काम करने के दुष्परिणाम
कुछ बच्चों का दिमाग इतना मजबूत नहीं होता है और धीरे-धीरे उनकी प्रेशर झेलने की क्षमता खत्म होती चली जाती है। ऐसे ही बच्चे, बचपन में या फिर बड़े होने के बाद भी नाकामयाबी के डर से ख़ुद को नुकसान तक पहुंचा देते हैं।
आजकल की कंपनियां भी अपनी एम्पलाईज को मोटिवेट करने की जगह प्रेशर में झोंक कर काम करवाती हैं, खासतौर पर सेल्स टारगेट वाली कंपनियां तो इंसानी जिंदगी के लिए नासूर की तरह हैं!
जबकि होना यह चाहिए कि जो हम करवाना चाहते हैं, हर बार उन्हें वो करने के लिए मोटिवेट करें, लॉजिक से समझाएं, कि फलां काम क्यों ज़रूरी है और उसके होने या नहीं होने के क्या फायदे और क्या नुकसान हैं। उन्हें नाकामयाबी से डराएं नहीं, बल्कि सिर्फ मार्गदर्शन करके उनके ऊपर छोड़ दें, उन्हें खुद से फेल या पास होने दें। और फेल होने पर समझाएं कि यही ज़िंदगी है, फेल होने का भी लुत्फ उठाओ और जिन वजहों फेल हुए हो, उनके ऊपर गौर करो।
वो अगर बार-बार भी फेल होते हैं, तब भी उन्हें मोटिवेट करना हैं। क्योंकि इससे उनके अंदर जो समझ पैदा होगी, हार का डर खत्म होगा, वो उन्हें स्थाई तौर पर मज़बूत और कामयाब बनाएगा।
यही काम सफलता पर भी करना है, सफलता इंसान को अपनी कमियों को देखने से रोकती है, जो कि लॉन्ग टर्म पर और भी ज़्यादा नुकसानदेह है।
मतलब फेलियर और सफलता दोनों इंसान के लिए उसके रब की तरफ से अवसर हैं!
भावनात्मक रूप से मूर्ख लोग
इमोशनली बेवकूफ लोग चलते फिरते बारूद की तरह हैं, कोई भी कभी भी इनके ज़रिए किसी का भी कत्ल करवा सकता है, दंगा भड़का सकता है।
हमारे देश में ऐसे लोगों गोमांस या फिर धर्मविरोध के नाम पर मॉब लिंचिंग करते पाए जाते हैं। ठीक ऐसे ही पाकिस्तान में भी गली गली में ऐसे बारूद के ढेर घूम रहे हैं। बस उन्हे यह कहकर इमोशनल बेवकूफ बनाना होता है कि फलां ने अल्लाह या फिर अल्लाह के रसूल (स.) की शान में गुस्ताखी की है।
फिर इमोशंस भड़कने पर शैतान बने यह लोग ना तो कोई फैक्ट्स चेक करते हैं, ना उन्हे किसी प्रूफ की ज़रूरत होती है और ना ही किसी अदालत में जुर्म साबित करना होता है। सज़ा भी थोड़ी बहुत नहीं, बल्कि शैतानों की भीड़ खुद ही सज़ा देते हुए सीधे लिंचिग कर देती है।
यह सिर्फ एक उदाहरण है, पर ऐसा वहां भी आए दिन होता रहता है। पाकिस्तान की आर्थिक और दिमागी बदहाली की ज़िम्मेदारी इन इमोशनल बेवकूफ कट्टरपंथियों पर भी आती है।
उनकी इस बदहाली के बावजूद इस तरफ वाले इमोशनल बेवकूफ उनसे खूब रेस लगा रहे हैं!
औरंगज़ेब सिर्फ एक शासक था
औरंगज़ेब भी दूसरे राजाओं की तरह एक शासक ही था, जिसके अंदर बहुत सारी खूबियाँ थीं और ऐसे ही बहुत सारी कमियाँ भी थीं, पर उन खूबियों और कमियों का देश के मुसलमानों से कोई ताल्लुक़ नहीं है। भले ही उसने किताबें लिखकर और रस्सियां बुनकर अपना खर्च चलाने जैसा बेहतरीन काम होगा, पर सत्ता की लड़ाई में अपने सगे भाइयों की हत्या करने वाला, अपने भाई दारा शिकोह की हत्या के बाद उसके पार्थिव शरीर को शहर में घुमाकर नुमाइश करने वाला और उसके सिर को तश्तरी में सजाकर अपने पिता के सामने पेश करने वाले से हमारा सम्बन्ध तो हरगिज़ नहीं हो सकता है।
साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति और इसका नुक़सान
यह दोनों तरफ़ की पार्टियां चाहती हैं कि चुनाव सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर लड़ा जाए। क्योंकि इससे दोनों तरफ के लोगों को किसी एक पार्टी को वोट देना मजबूरी बन जाता है। फिर चुनाव में लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि उनके काम हुए या नहीं हुए, देश या राज्य तरक़्क़ी की राह पर जा रहा है या नहीं।
हालांकि कांग्रेस जैसी पार्टियां यह भूल जाती हैं कि जब नफरतें चरम पर होती हैं, तो फिर चाहे सेकुलर माइंडसेट वाले हिंदू हों या फिर मुसलमान, दोनों ही कम्युनल एजेंडे पर वोट देने को मजबूर हो जाते हैं और इनकी हार की यही वजह है!
देश के लोगों के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि चुनाव इमोशनल इशुज़ की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता के कामों पर होने चाहिए। मतलब क्या काम किए, क्या नाकामी रही और आगे का क्या एजेंडा है, लोकतंत्र इसी का नाम है कि चुनाव के वक्त जनता अपने कामों के हिसाब से वोट दे!
साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के नाम से होने वाली राजनीति को हाशिए पर लाने का मेरी नज़र में सिर्फ यही एक हल है।
आप कारोबार में जितना ज़्यादा मेहनत करते हैं उतना ही कम कमाते हैं
इसलिए वक्त के साथ साथ बैलेंस बनाते हुए कारोबार में ख़ुद की मेहनत को कम करते जाइए और कारोबार चलाने और बढ़ाने के लिए ज़रूरी नेटवर्क को मज़बूत करते जाइए...
खुद अधिक मेहनत करने की जगह टीम बनाने उसे मैनेज करना सीखिए। मेरे एक मित्र का पारिवारिक कारोबार अच्छा चलता था, मैंने उसे समझाया कि आप लोग स्वयं मेहनत में लगे रहते हैं, इसकी जगह आपको काम करने वाले कारीगर लगाने चाहिए। इससे जो समय बचेगा उसे आप व्यसाय बढ़ाने में लगा सकते हैं। पर उसके पिता को यह बात समझ नहीं आई, उन्होंने कहा कि हम हाथ के कारीगर है फिर हम खुद काम करना छोड़कर दूसरों को इस काम पर क्यों लगाए? पर कुछ साल बाद उनका व्यवासय पिछड़ने लगा, क्योंकि उसके क्षेत्र में नए व्यवसायी आने लगे थे, जिन्होंने इन्वेस्टमेंट करके बड़ी फैक्ट्रियां लगाईं। काम बढ़ने के साथ-साथ उन्होंने ज़्यादा कारीगरों को हायर किया। जिससे वो कम्पटीशन में उनसे कम कीमत पर अच्छी क्वालिटी उपलब्ध कराने लगे। और इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे धीरे उनका कारोबार ठप्प हो गया।
वैसे भी उसूल यह कहता है कि किसी कारोबार में रात-दिन मेहनत करके आप ज़िंदगी अच्छी तरह से चलाने का इंतजाम तो कर सकते हैं पर अमीर नहीं बन सकते हैं!
अमीर हालांकि अरबी का लफ्ज़ है, जिसका मतलब लीडर होता है, पर अगर पैसे वाले अमीर की बात की जाए तो वो वही व्यक्ति बनता है जो कारोबार को कम से कम मेहनत से मैनेज करना सीख लेता है। जब एक कारोबार कुछ चल जाए तो खर्च निकालने के बाद बचे मुनाफे से बाकी के कारोबारों की तरफ रुख करना ही अमीर बनने का सीधा रास्ता है। एक कमाई से कभी कोई अमीर नहीं बनता है!
और जो यह कहते कि अमीर गलत धंधे करके ही बनते हैं, वो आपको सिर्फ झूठ का सहारा लेकर बेवकूफ ही नहीं बना रहा होता है, बल्कि आपको डिमोटिवेट करके बहुत बड़ा गुनाह भी कर रहे होते हैं। याद रखिए कि पैसे कमाना शैतानी काम नहीं है बल्कि यह एक धार्मिक और समाज का भला करने वाला काम है, बशर्ते सही उसूलों से किया जाए!
इसलिए अमीर या फिर बिलिनियर बनने का लक्ष्य रखिए, खूब सारा पैसा कमाना बेहद ज़रूरी है और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि ईश्वर जो हमें सामाजिक नेटवर्क के ज़रिए दे रहा है उसे समाज को वापिस भी किया जाए। यानी कौम, समाज, देश और इंसानियत के फायदे के लिए अपनी कमाई में से परिवार पर खर्च करने के बाद बचे पैसे का आधा हिस्सा खर्च किया जाए। यह पैसा आप शिक्षा, रिसर्च, भोजन, इलाज और लोगों को कारोबार कराने की व्यवस्था के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।
विश्वास कीजिए, आप जितना इंसानियत को फायदा पहुंचाने के लिए खर्च करेंगे आपका रब उसका कई गुना आपको वापिस करेगा। मतलब यह भी एक तरह से ईश्वर के साथ कारोबार हो गया... 😊
और वो बेहतरीन नफा देने वाला है!