हम इश्क़ के महल को सजाते रहे हर रोज़
मेरे मरने के बाद भी मुझे करते हैं परेशां
वोह इसीलिए कब्र पर आते रहे हर रोज़
मालूम न था परदेसी लौट कर नहीं आते
हम ‘सदा’ वीरानों में लगाते रहे हर रोज़
अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़
उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़
आता है उन्हें हमें सताने का सलीका
नज़रे मिला के ‘नज़र’ चुराते रहे हर रोज़
नज़रे हैं उसकी तरकश का सबसे अचूक तीर
उस तीर को कमां पे चढाते रहे हर रोज़
यह उनकी आशिनाई की ही एक अदा थी
वोह प्यार का एहसान जताते रहे हर रोज़
खुद सो रहे हैं मखमली बिस्तर पे तभी से
हमें ख्वाब के बहाने जगाते रहे हर रोज़
कमज़ोरी मेंरी उनके जबसे रूबरू हुई
वोह ‘मुस्करा’ के ज़हर पिलाते रहे हर रोज़
- शाहनवाज़ 'साहिल'
Keywords:
Bekhudi, Gazal, Ghazal, बेखुदी, ग़ज़ल
"उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
ReplyDeleteहम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़"
जी बहुत बढ़िया....
सच्ची बात सी लग रही है.....
चक्कर क्या है....?
कुंवर जी,
badhiyaa gazal hai...
ReplyDeletesarwgun sammpann lekhak kii adbhut rachna !!!
ReplyDeleteअब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
ReplyDeleteहम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़
बहुत खूब!
अच्छी गज़ल कही है.
sweet
ReplyDeleteसुंदर ग़ज़ल
ReplyDelete@ kunwarji's
ReplyDeleteजी बहुत बढ़िया....
सच्ची बात सी लग रही है.....
चक्कर क्या है....?
कुंवर जी,
बस चक्कर की मत पूछिये. :-)
@ paramjitbali-ps2b, सलीम ख़ान, alpana-verma, माधव, अर्चना तिवारी.
ReplyDeleteआप सभी का मेरी हौसला अफज़ाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.
पत्थरों को भी बफा फूल बना देती है / ईमानदारी से किया गया प्रयास हैवान को इन्सान बना सकती है / आपकी सोच को हमेशा मेरा साथ रहेगा /
ReplyDeleteहम ने जब से तुम्हें देखा, तब से देखते हैं रोज
ReplyDeleteतुम देखो या न देखो हमारी तरफ हम देखते हैं रोज
आजकल हम इधर हैं तो इधर की मेल से
nice
ReplyDeleteHMMMMMMMM............
ReplyDeleteTO YE BAAT HAI.....
"अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
ReplyDeleteहम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़"
वाह वाह
आता है उन्हें हमें सताने का सलीका
ReplyDeleteनज़रे मिला के ‘नज़र’ चुराते रहे हर रोज़
नज़रे चुराने की यह अदा तो सदियों पुरानी है
बहुत सुन्दर .. अच्छा लगा
@शाहनवाज़ साहबआप एक अच्छे शायर ,लेखक और विचारक है पिछली पोस्ट से भी शानदार पोस्ट।
ReplyDeleteअब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
ReplyDeleteहम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़
उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़
दिल को छू लेने वाली खूबसूरत ग़ज़ल..
बहुत खूब। अच्छी रचना के लिए बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteशाहनवाज़ जी प्रेम से भरी एक सुंदर ग़ज़ल..बढ़िया लगी..आभार
ReplyDelete@ Umar Kairanvi ji, honesty project democracy (Jha Ji), माधव जी, sahespuriya ji, राकेश कौशिक जी, M VERMA ji, Ayaz ahmad ji, sangeeta swarup ji, राजकुमार सोनी जी, nilesh mathur ji, विनोद कुमार पांडेय जी, ANWER JAMAL ji.
ReplyDeleteमेरी हौसला अफज़ाई के लिए आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.
बहुत सुन्दर.............
ReplyDeletewah wah .........beautiful.....
ReplyDelete"...हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़"
ReplyDeleteये तो कुछ अपनी बात सी लगी.
बहुत बढ़िया शाह..जी
अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
ReplyDeleteहम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़
and.....
उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़
so nice.......
Very beautiful Shah ji.
ReplyDeleteउसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
ReplyDeleteहम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़
दिल को छू लेने वाली खूबसूरत ग़ज़ल..