आतकवाद क्यों और कब तक?

सबसे पहली ज़रूरत आंतकवाद के खात्मे की नियत की है, अभी तो हमारे देश के हुक्मरानों ने इसकी नियत ही नहीं की है, नताईज तो बहुत बाद की बात है। अभी तो सरकार इस रंग, उस रंग, अपना-पराया में ही अटकी हुई है। आतंकवादियों को बिना रंग भेद किये, अपना-पराया सोचे न्याय की ज़द में लाने, जल्द से जल्द और सख्त से सख्त सजाएं देने की ज़रूरत है।

जिस तरह से जल्दबाजी में जाँच और मिडिया ट्रायल का सिलसिला चलता है, यह बेहद खतरनाक है। कभी इस समुदाय को कभी उस समुदाय को निशाना बनाया जाता है। अगर किसी समुदाय में से कोई गुनाहगार निकलता है तो पुरे समुदाय को ही ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगता है। आज यह विचार करना पड़ेगा आखिर क्या वजह है कि जिस संदिग्ध को पकड़ा गया है, उससे सम्बंधित समुदाय के 90-95 प्रतिशत लोग उसे बेक़सूर समझते हैं? मेरी नज़र में इसके पीछे एक बड़ी वजह आतंकवाद जैसे संगीन अपराध में पकडे गए मुलजिमों का लम्बी अदालती कार्यवाहियों से गुज़रना और अक्सर का बाद में बेक़सूर निकलना हैं।



सरकारे अपनी लाज बचाने के लिए असंवेदनशीलता बरतती है। आखिर क्यों हमारी जाँच एजेंसियां ऐसे मामलों में शुरुआत से ही लीपापोती की जगह ठोस जाँच नहीं करती? क्यों सारा ठीकरा केवल दूसरे देश में बैठे आकाओं पर फोड़ कर इतिश्री पा ली जाती है? सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर जाँच के नाम पर ऐसा कब तक चलता रहेगा? क्या सरकार इस कारण नौजवानों में बढ़ते हुए आक्रोश को नहीं पहचान पा रही है? या फिर जान बूझ कर ऑंखें बंद किये बैठी है?

एक-दूसरे पर इलज़ाम लगाने से तो कोई फायदा होने वाला नहीं है। मासूमों का क़त्ल करने वाले आतंकवादी हैं, चाहे किसी धर्म से, किसी समाज से या किसी भी मुल्क से ताल्लुक रखते हो। आतंकवाद का ना ही कोई धर्म हो सकता है और ना ही कोई मुल्क। इस बात को समझने की आवश्यकता है कि अगर वह किसी भी धर्म पर चलते तो आतंकवादी होते ही नहीं। आतंकवादी धर्म की चादर ही इसलिए ओढते हैं, जिससे कि उन्हें धर्मांध लोगो की सहानुभूति एवं मदद मिल जाए। हालाँकि उनका मकसद धार्मिक नहीं बल्कि राजनैतिक है।
हमें हर हाल में इन कातिलों का विरोध करना ही पड़ेगा, चाहे ऐसी हरकत सगा भाई ही क्यों ना करे। जो मासूमों का क़त्ल करता है, वह इंसान ही कहलाने के लायक नहीं है, भाई / रिश्तेदार / दोस्त / मुसलमान / हिन्दू / पडौसी कहलाने की तो बात ही क्या।

इस परिस्थिति के लिए समाज में आ रही दरार भी कहीं ना कहीं ज़िम्मेदार है। दुनिया में इंसानियत के जज्बे को बचाए रखने की ज़रूरत है और इसके लिए हर उस धर्मान्ध का विरोध करना पड़ेगा जो खुद की सोच से अलग सोच रखने वालों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं, अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, उन्हें समाप्त कर देना चाहते हैं। नफरत के सौदागरों की समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए और असल बात यह है कि कानून को इनसे बड़ा बनना पड़ेगा।





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धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता


धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता के एक साथ चलने में कोई भी परेशानी नहीं है लेकिन धर्मान्धता और धर्मनिरपेक्षता का एक साथ चलना मुश्किल है। 

मेरी नज़र में धर्मनिरपेक्षता का मतलब है किसी के धर्म पर नज़र डाले बिना सबके लिए समानता और हर धर्म का आदर। हालाँकि धर्मनिरपेक्षता का मतलब मेरे लिए हर एक धर्म में समानता नहीं है। 

मैं जिस धर्म को सही मानता हूँ उस पर चलूँगा और आपको हक़ है अपनी सोच के अनुसार अपने धर्म को सही मानने का, इसमें झगडे वाली बात क्या हो सकती है भला? झगडा तो तब है जबकि मैं यह सोचूं कि मेरी ही चलेगी क्योंकि मैं सही हूँ। मेरी बात मानो, नहीं तो तुम्हे इस दुनिया में रहने का हक़ नहीं है। या फिर दूसरों के धर्म या आस्था का मज़ाक बनाता फिरूं। ऐसी सोच वाले मेरी नज़र में धार्मिक नहीं बल्कि धर्मांध हैं और मैं हर एक ऐसे शख्स के खिलाफ हूँ जो ऐसा करता है या सोचता है।

यह तो रब के कानून की अवहेलना है, जिसने दुनिया में सबको अपनी मर्ज़ी से जिंदगी गुज़ारने का हक़ दिया है।

तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म - [109:6] कुरआन

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उनका अहसान फ़र्ज़, हमारा फ़र्ज़ अहसान

समाज में महिलाओं के पुरुषों पर अहसान को उनका फ़र्ज़ (ड्यूटी) और अपने फ़र्ज़ पूरे करने को उनपर एहसान बताया जाता है।

पत्नी का पति के लिए खाना बनाना, घर का ख्याल रखना, बच्चों की परवरिश करना इस्लाम में फ़र्ज़ नहीं है, बल्कि पति पर एहसान है (अगर वोह करना चाहे तो) । अगर पत्नी बच्चे को दूध ना पिलाना चाहे तो दूध पिलाने वाली का इंतजाम करना पति के ऊपर फ़र्ज़ है। और एहसान का बदला एहसान से या फिर कम-अज़-कम हुस्न-सलूक होना चाहिए। लेकिन इसको पत्नी की ड्यूटी बना दिया गया, जिससे कि वोह घर की चार-दिवारी में टिकी रहे।

यहाँ तक कि माता-पिता की देखभाल करना, उनके खाने-पीने का इंतजाम करना पति पर  फ़र्ज़ बनाया गया है, लेकिन आज उसे पत्नी का फ़र्ज़ बना दिया गया है। ऊपर से किसी भी महिला के अपने माता-पिता के लिए जो फ़र्ज़ हैं उन्हें गुनाह समझा जाने लगा है। कोई महिला अगर अपने माता-पिता की देखभाल करती है, आर्थिक मदद करती है तो उसे बुरा समझा जाता है। अपनी मर्जी चलाई जा सकें, इसलिए  अधर्म को धर्म का जामा पहनाने की कोशिश की जाती है।

अगर समाज में सभी रिश्ते एक-दूसरे के हक को समझे, दूसरों के अहसान को अहमियत दें रिश्तों में कडवाहट नहीं बल्कि मिठास जागेगी। बहु को अहसास होना चाहिए की उसके सास-ससुर के उस पर कितने अहसान हैं, वहीँ सास-ससुर को अपनी बहु के एहसानों पर मुहब्बत की नज़र रखनी चहिये।  जैसे पत्नी पति के रिश्तों को अहमियत देती है, ठीक उसी तरह पति को भी अपनी पत्नी के रिश्तों को उतनी ही अहमियत देनी चहिये।

एक दूसरे पर अहसान दर-असल एक दूसरे से मुहब्बत की अलामत है।

(मेरे द्वारा की गई टिपण्णी का सार)





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मर्द हमेशा कोशिश करते हैं कि किसी न किसी तरीके से औरतों को गुलाम बनाये रखा जा सके। इसके लिए वह धार्मिक बातों को अपने फायदे के लिए तोड़-मरोड़ते हैं। और महिलाऐं उसी को धर्म समझ कर चुपचाप करती रहती हैं।

एक औरत का अपने पति के लिए खाना बनाना, घर का ख्याल रखना, बच्चों की परवरिश करना इस्लाम में फ़र्ज़ नहीं है, बल्कि पति पर एहसान है (अगर वोह करना चाहे तो). यहाँ तक कि अगर पत्नी बच्चे को दूध ना पिलाना चाहे तो ...फ़ौरन दूध पिलाने वाली का इंतजाम करना पति के ऊपर फ़र्ज़ है। और एहसान का बदला एहसान से या फिर कम-अज़-कम हुस्न-सलूक से चुकाया जाता है। लेकिन इसको पत्नी की ड्यूटी बना दिया गया, जिससे कि वोह घर की चार-दिवारी में टिकी रहे।
पति के माता-पिता की देखभाल करना पति की ज़िम्मेदारी है लेकिन उसे पत्नी की ज़िम्मेदारी बना दिया गया। ऊपर से किसी भी महिला के अपने माता-पिता के ऊपर जो फ़र्ज़ हैं उन्हें गुनाह समझा जाने लगा है। कोई महिला अगर अपने माता-पिता की आर्थिक मदद करती है तो उसे बुरा समझा जाता है।
ज़बरदस्ती अपनी मर्जी को धर्म का जामा पहनाया जाता है, जिससे कि उनसे अपनी मर्जी के काम करवाए जा सकें।



अराधना चतुर्वेदी की पोस्ट http://www.facebook.com/aradhana.chaturvedi/posts/4257068594434 पर मेरा कमेन्ट।

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