आज सारे विश्व को आतंकवाद नामक दानव ने घेरा हुआ है। आमतौर पर आतंकवाद किसी वर्ग अथवा सरकार से उपजी प्रतिशोध की भावना से शुरू होता है। इसके मुख्यतः दो कारण होते है, पहला यह कि किसी वर्ग से जो अपेक्षित कार्य होते हैं उसके द्वारा उनको ना करना तथा दूसरा कारण ऐसे कार्यों को होना जिनकी अपेक्षा नहीं की गई है। मगर आमतौर पर ऐसे प्रतिशोधिक आंदोलन अधिक समय तक नहीं चलते हैं। हाँ शासक वर्ग द्वारा हल की जगह दमनकारी नीतियां अपनाने के कारणवश अवश्य ही यह लम्बे समय तक चल सकते है। ऐसे आंदोलनों में अक्सर अर्थिक हितों की वजह से बाहरी हस्तक्षेप और मदद जुड़ जाती है और यही वजह बनती है प्रतिशोध के आतंकवाद के स्तर तक व्यापक बनने की। कोई भी हिंसक आंदोलन धन एवं हथियारों की मदद मिले बिना फल-फूल नहीं सकता है। इन हितों में राजनैतिक, जातीय, क्षेत्रिए तथा धार्मिक हित शामिल होते हैं। बाहरी शक्तियों के सर्मथन और धन की बदौलत यह आंदोलन आंतकवाद की राह पर चल निकलते हैं और सरकार के लिए भस्मासुर बन जाते हैं। तब ऐसे आंदोलन क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं रह जाते, बल्कि संगठित होकर सशक्त व्यापार की तरह सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ाए जाते हैं।
जब बात धार्मिक हितों की होती है तो ऐसे संगठन धार्मिक ग्रन्थों का अपने हिसाब से विश्लेषण करके धर्म की सही समझ नहीं रखने वाले लोगों को अपने जाल में फांस लेते हैं। जैसा कि अक्सर सुनने में आता है कि आतंकवादी ट्रेनिंग सेंटरों में यह समझाया जाता है कि ईश्वर (अल्लाह) ने काफिरों को कत्ल करने का हुक्म दिया है। ज़रा सी समझ रखने वाला यह समझ सकता है कि अगर ईश्वर काफिरों को कत्ल करने का हुक्म देता तो वह उनको पैदा ही क्यों करता? बल्कि ईश्वर कुरआन में फरमाता है कि वह अपने बन्दों से एक माँ से भी कई गुणा अधिक प्रेम करता है, चाहे वह उसे ईश्वर माने अथवा ना माने और अपने गुमराह बन्दे का भी अंतिम सांस तक वापिस सही राह पर लौट कर आने का इंतज़ार करता है।
कारून नामक खलनायाक इतिहास में एक बहुत बड़े धर्म विरोधी के रूप में जाना जाता है। एक बार उसने लोगों को इकटठा किया और मुसा (अ.) से सबके सामने मालूम किया कि ज़िना (बलात्कार) के गुनाह पर आपका कानून क्या कहता है? उनके जवाब पर उसने एक औरत के द्वारा मुसा (अ.) पर अस्मिता लूटने का इल्ज़ाम लगावाया, इस इल्ज़ाम पर मुसा (अ.) को बहुत गुस्सा आया। मुसा (अ.) का गुस्सा देख कर उस महिला ने सारा सच साफ-साफ उगल दिया। जब उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की तो ईश्वर ने कहा कि (अर्थ की व्याख्या) "हमने धरती को तुम्हारे अधीन कर दिया है, तुम उसे जैसा चाहे हुक्म दे सकते हो।" मुसा (अ.) ने धरती को हुक्म दिया की वह कारून को अपने अन्दर समा ले, इस पर धरती ने उसके बदन का कुछ हिस्सा अपने अंदर समा लिया। यह देख कर कारून ने मुसा (अ.) से अपना जूर्म कुबूल करते हुए माफी मांगी। लेकिन वह बहुत अधिक गुस्से में थे, वह धरती को हुक्म देते गए और कारून माफी मांगता गया। आखिर में कारून पूरा का पूरा धरती में समा गया, इस पर स्वंय ईश्वर ने मुसा (अ.) से कहा कि (अर्थ की व्याख्या) "मेंरा बन्दा तुझ से माफी मांगता रहा और तुने उसे माफ नही किया? मेरे जलाल की कसम अगर वह एक बार भी मुझसे माफी मांगता तो मैं अवश्य ही उसे माफ कर देता।" उपरोक्त बात से पता चलता है कि मेरा अल्लाह (ईश्वर) अपने बन्दों को कैसा प्यार करने वाला और कैसा माफ करने वाला है कि कारून को भी अपना बन्दा कह रहा है और उस जैसे गुनाहगार को भी माफ करने के लिए फौरन तैयार है जिसने स्वयं को ईश्वर घोषित किया हुआ था।
आतंकवादी संगठन अक्सर ही उन आयतों (श्लोक) का गलत विश्लेषण करते हैं जिनमें ईश्वर युद्ध के समय ईमान रखने वालों को उनके विरूद्ध युद्ध का ऐलान करने वालों से डर कर भागने की जगह जम कर युद्ध करने का आह्वान करता है। यह बिलकुल ऐसा ही है, जैसे अपने देश के वीर जवानों को युद्ध के लिए तैयार करने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है तथा कमांडर उनमें जोश भरते हैं. अक्सर इस्लाम विरोधी भी आतंकवादियों की ही तरह इन आयतों को सही संदर्भ में समझने की कोशिश नहीं करते हैं और इस्लाम के विरोध में उतर आते हैं। अगर ध्यान से देखा जाए तो इस सतह पर दोनो एक ही तरह का कार्य रहें हैं।
इस्लाम यह अनुमति नहीं देता है कि एक मुसलमान किसी भी परिस्थिति में किसी गैर-मुस्लिम (जो इस्लाम के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करता) के साथ बुरा व्यवहार करे. इसलिए मुसलमानों को किसी ग़ैर-मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण की, डराने की, आतंकित करने, उसकी संपत्ति गबन करने की, उसके सामान के अधिकार से उसे वंचित करने की, उसके ऊपर अविश्वास करने की, उसकी मजदूरी देने से इनकार करने की, उनके माल की कीमत अपने पास रोकने की (जबकि उनका माल खरीदा जाए) या (अगर साझेदारी में व्यापार है तो) उसके मुनाफे को रोकने की अनुमति नहीं है.
अगर ध्यान से देखा जाए तो पता चलता है कि इस्लाम केवल उन ग़ैर मुस्लिमों से युद्ध करने की अनुमति देता है जो कि मुसलमानों के खिलाफ युद्ध का ऐलान करें तथा उनको उनके घरों से बेदखल कर दें अथवा इस तरह के कार्य करने वालों का साथ दें। ऐसी हालत में मुसलमानों को अनुमति है ऐसा करने वालो के साथ युद्ध करे और उनकी संपत्ति जब्त करें.
[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.
[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.
[2:190] और अल्लाह के मार्ग मं उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़ें, किन्तु ज़्यादती ना करो। निसन्देःह अल्लाह ज़्यादती करने वालों को पसंद नहीं करता।
किसी भी बेगुनाह को कत्ल करने के खिलाफ ईश्वर स्वयं कुरआन में फरमाता हैः
इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेशवाहक) स्पष्ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]
इस बारे में अल्लाह (ईष्वर) के अंतिम संदेषवाहक मुहम्मद (स.) का हुक्म है किः
"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)
"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)
"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)
"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)
"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).
हिंसक आंदोलनों चाहे छोटे स्तर पर हों अथवा आतंकवाद का रूप ले चुके हों, इनको केवल शक्ति बल के द्वारा समाप्त नहीं जा सकता है, बल्कि जितना अधिक शक्ति बल का प्रयोग किया जाता है उतने ही अधिक ताकत से ऐसे आंदालन फल-फूलते हैं। इनसे जुड़े संगठन बल प्रयोग को लोगो के सामने अपने उपर ज़ुल्म के रूप में प्रस्तुत करते हैं तथा और भी अधिक आसानी से बेवकूफ बना लेते हैं। ऐसे में आतंकवादी आंदोलन से संबधित पूरे के पूरे वर्ग को ही घृणा और संदेह की निगाह से देखा जाना मुश्किल को और भी बढ़ा देता है। बल्कि ऐसे आंदोलनों के मुकाबले के लिए सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा बल प्रयोग जैसे सभी विकल्पों को एक साथ लेकर चलना चाहिए। वहीं हमारा भी यह कर्तव्य बनता है कि पूरे समाज में हिंसा / आतंक के खिलाफ जागरूकता फैलाई जाए।
आज ऐसी आतंकवादी सोच के खिलाफ पूरे समाज को एकजुट होकर कार्य करने की आवश्यकता है। इसके लिए सबसे पहला और बुनियादी कार्य आपसी भाईचारे को बढ़ाना तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करना है।
आईये मिलकर इस मुहिम को आगे बढ़ाएं।
-शाहनवाज़ सिद्दीकी
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