सबसे पहले तो हमें यह पता होना चाहिए कि इस्लाम में विवाह एक कोंट्रेक्ट मैरिज होती है जिसमें क़ाज़ी, वकील तथा 2 गवाहों के सामने कुबूल कर लेने से निकाह हो जाता है तथा विशेष परिस्थितिओं में विवाह को 'तलाक' अथवा 'खुला' के द्वारा विच्छेद किया जा सकता है। मुस्लिम विवाह में गवाह, वकील तथा क़ाज़ी केवल इसलिए होते हैं जिससे कि कोई भी पक्ष विवाह से मुकर ना जाए।
ठीक इसी तरह जब यह एहसास हो जाए कि अब साथ रहना नामुमकिन है और ज़िन्दगी की गाडी को आगे बढाने के लिए अलग होना ही एकमात्र तरीका बचा है, तब ऐसे हालात के लिए तलाक़ का प्रावधान है।
तलाक़ का इस्लामिक तरीका यह है कि जब यह अहसास हो कि जीवन की गाडी को साथ-साथ चलाया नहीं जा सकता है, तब क़ाज़ी मामले की जाँच करके दोनों पक्षों को कुछ दिन और साथ गुज़ारने की सलाह दे सकता है अथवा गवाहों के सामने पहली तलाक़ दे दी जाती है, उसके बाद दोनों को 30 दिन (माहवारी की समयसीमा) तक अच्छी तरह से साथ रहने के लिए कहा जाता है। अब अगर उसके बाद भी उन्हें लगता है कि साथ रहना मुश्किल है तो फिर दूसरी बार गवाहों के सामने "तलाक़" कहा जाता है, इस तरह दो "तलाक" हो जाती हैं और फिर से 30 दिन तक साथ रहा जाता है। अगर फिर भी लगता है कि साथ नहीं रहा जा सकता है तब जाकर तीसरी बार तलाक़ दी जाती है और इस तरह तलाक़ मुक़म्मल होती है।
इसके अलावा 1 तलाक़ देने के बाद तीन महीने तक भी इंतज़ार किया जा सकता है और तीन महीने पूरे होने से पहले साथ रहने या नहीं रहने का फैसला किया जाता है, अगर साथ नहीं रहना है तो तलाक़ हो जाती है। इस हालत में अगर कुछ दिनों या महीनों के बाद दोनों को अगर लगता है कि तलाक़ देकर गलती की है तो दुबारा निकाह किया जा सकता है, पर इस तरीके से भी अलग-अलग बार तीन बार तलाक़ देने के बाद फिर से शादी का हक़ ख़त्म हो जाता है।
इसमें सुन्नी मुस्लिम समाज का 'हनफी', 'शाफ़ई' तथा 'मालिकी' मसलक में एक ही समय में "तीन तलाक़" को भी सही माना जाता हैं, हालाँकि वह भी इस तरीके को अच्छा तरीका नहीं मानते। अन्य मुस्लिम उलेमा एक समय में तीन तलाक़ दिए जाने को "तलाक़" नहीं मानते हैं और कई मुस्लिम देशों में इस तरह से तलाक देने पर व्यक्ति के विरुद्ध सज़ा का प्रावधान है।
महिलाओं को तलाक़ का हक
यह कहना गलत है कि महिलाओं को तलाक़ का हक नहीं है। अगर किसी महिला को पति पसंद नहीं है या फिर वह शराबी, जुआरी, नामर्द, मार-पीट करने वाला, बुरी आदतों या स्वाभाव वाला या किसी ऐसी सामाजिक बुराई में लिप्त है जो कि समाज में लज्जा का कारण हो तो उसे सम्बन्ध विच्छेद का हक है। इसके लिए उसे भी क़ाज़ी के पास जाना होता है। महिला के आरोप सही पाए जाने की स्थिति में विवाह विच्छेद का अधिकार मिल जाता है, जिसको 'खुला' कहा जाता है।
इस विषय में कुछ लोगो का यह कहना है कि जब विवाह पति-पत्नी की मर्ज़ी से होता है तो तलाक़ किसी एक की मर्ज़ी से कैसे हो सकता है। मेरे विचार से ऐसा कहना व्यवहारिक नहीं है, सम्बन्ध हमेशा दो लोगो की मर्ज़ी से ही बनते हैं परन्तु किसी एक की भी मर्ज़ी ना होने से सम्बन्ध समाप्त हो सकते हैं। ज़रा सोचिये अगर किसी महिला का पति उस पर ज्यादतियां करता है, यातनाएं देता है और तलाक़ देने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं है तो क्या ऐसे में बिना उसकी मर्जी के तलाक़ के प्रावधान का ना होना जायज़ कहलाया जा सकता है?
एक पुरुष और महिला के दिलों का मिलना और साथ-साथ सामाजिक बंधन में बंध कर रहना विवाह है तो रिश्तों में तनाव या अन्य किसी कारण से साथ-साथ ना रह पाने की स्थिति का नाम 'तलाक़' है।
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