क्योंकि मानसिक विक्षिप्त वोटर नहीं हैं


क्या विकास का फटा ढोल बजाने वाली सरकारों के पास सड़कों पर दर-बदर की ठोकरे खाने वाले मानसिक विक्षिप्त लोगो के लिए कोई प्लान नहीं है? उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है? उनकी मदद के लिए कोई बजट नहीं? या कोई ऐसा बिल जो मंत्रिमंडल समूह ने अप्रूव कर दिया हो या लोकसभा/राज्यसभा में हो? 

कुछ मानवीय संवेदनाएं बची हैं या बस वोटरों को ही लुभाया जाएगा? 

नहीं, बस यूँ ही मालूम कर लिया... सुना है आजकल 'भारत निर्माण' हो रहा है..

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पेन्सिल वर्क - रॉक स्टार

ऑफिस के एक सीनियर सहकर्मी के लिए पेन्सिल से बनाया उनका यह रॉक स्टार अवतार :-)










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'बेहया' औरतों का रेप करना मर्दों का हक़ है?

निर्भया केस में रेपिस्टों के वकील ने अपने घटिया बयान में क्या गलती की है? वह तो उसी सोच को ज़ाहिर कर रहा है जो इस पुरुष प्रधान समाज ने बनाई है। वह ही क्या बल्कि अधिकतर पुरुष सोचते है कि औरतें मर्दों की ग़ुलाम हैं। 

उनके हिसाब से बलात्कार के केस में गुनाहगार लड़की ही होती है। वह अकेली बाहर निकलेगी तो उस 'बेहया' की बोटियाँ नोचना मर्दों का हक़ बनता है। समाज चाहता है कि औरत पहले पति की गुलाम बने और उसके बाद बेटों की। और अगर पति या बेटे ना हों तो समाज के ठेकेदारों या फिर जिस्म के दलालों की ग़ुलामी करें, नहीं तो उन्हें पेट्रोल छिड़क कर जला दिया जाएगा या फिर तेज़ाब से झुलसा दिया जाएगा।

यक़ीन मानिये निर्भय केस पर भी अगर मिडिया/सोशल मिडिया और सड़क पर नौजवानों  के द्वारा आन्दोलन नहीं चलाया गया होता तो इस केस का हाल भी अन्य लंबित केसों जैसा ही होता। 

जिन लोगो को उसके बयान पर शर्म आ रही है, तो पहले वोह अपने समाज की सोच बदलने की चिंता करें, क्योंकि यह हमारे समाज की दबी हुई या छुपी हुई आवाज़ है।




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यह कौन से राजनेताओं की फोटो है?

Guess who are the politicians in the following picture?












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चुनावी मौसम में मासूमों की बलि

सेनाएँ तैयार हो चुकी हैं, सेनापति ताल ठोक रहे हैं... मासूम जनता की बलि चढ़ाई जा रही है... देश की फिज़ा को बदबूदार बनाए जाने की कोशिशें रंग ला रही हैं। पिद्दी से पिद्दी पार्टी का नेता भी हर हाल में प्रधानमंत्री बनना चाहता है... आखिर यह इलेक्शन होते ही क्यों हैं???

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वोटों के लालची इंसानियत की लाश के चीथड़े उड़ा रहे हैं


कुछ को लग रहा है मुसलमान मारे जा रहे हैं और कुछ को लग रहा है हिन्दू... किसी का भाई दंगो का शिकार हुआ है किसी का बेटा और किसी बाप... कितनी ही औरतों की आबरू को कुचल दिया गया... मगर हर इक अपने-अपनों के गम में उबल रहा है और दूसरों की मौत पर अट्टहास कर रहा है... घिन आती है इस सोच पर!

यक़ीन मानिये इन देशद्रोही नेताओं के हाथों इंसानियत को सरे-आम क़त्ल किया जा चुका है और अब रोज़-बरोज़ इंसानियत की मृत देह चीथड़े-चीथड़े की जा रही हैं।

ख़ुदा खैर करे!!! देश में इलेक्शन आने वाला है।

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कहानी हर घर की...

सास चाहती है बहु उसके 'हिसाब' से चले और बहु चाहती है कि सास उसके 'हिसाब' से!

वहीँ पिता चाहता है बेटा उसके 'हिसाब' से चलना चाहिए, मगर बेटे का 'हिसाब' कुछ दूसरा ही होता है। उधर पति चाहता है कि पत्नी पर उसका 'हिसाब' चले मगर पत्नी अपना 'हिसाब' चलाना चाहती है।

आखिर दूसरों पर अपनी सोच थोपने की जगह सब अपने-अपने 'हिसाब' से क्यों नहीं चलते?


वैसे मज़े की बात यह है कि जो दूसरों को अपने 'हिसाब' से चलाना चाहते हैं, वह खुद भी उस 'हिसाब' से नहीं चलते!!!



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कार्टून: रुपया गिर रहा है या सरकार?

Cartoon: It's a downfall of Rupees or Government?












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Juvenile Act बदलने के लिए आन्दोलन की आवश्यकता


दामिनी कांड के तथाकथित नाबालिग अभियुक्त को जो सज़ा हुई है, वोह कानून के मुताबिक तो एकदम ठीक हई है, मगर न्याय के एतबार से इस सज़ा को नहीं के बराबर ही कहा जाएगा। मुझे लगता है ध्यान और कोशिश इस सज़ा से भी अधिक ऐसे कानून को बदलने पर होनी चाहिए जिसके तहत रेप विक्टिम को पूर्ण न्याय नहीं मिल पाया। Juvenile Act को बदलने के लिए एक  बड़े सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता है।

समय रहते चेतना होगा, ना केवल बलात्कार जैसे घृणित कृत बल्कि आतंकवाद जैसे समाज के लिए खतरनाक अपराधों में भी इस तरह के कानूनों के दुरूपयोग की पूरी संभावनाएं हैं। 

ज़रा सोचिए अगर कसाब 17 वर्ष का होता तो क्या होता???

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