'विश्वरूपम' पर बिना मतलब का विवाद उठाया जा रहा है। मामला कोर्ट में है, जिसे दोनों पक्षों की बात सुनकर फैसला सुनाना चाहिए। राजनितिक कारणों से अथवा पब्लिसिटी के लिए विवाद करना, विरोध स्वरुप जगह-जगह तोड़-फोड़ करना, धमकियाँ देना घटिया मानसिकता है। किसी भी बात का विरोध करने अथवा अपना पक्ष रखने का तरीका हर स्थिति में लोकतान्त्रिक और कानून के दायरे में ही होना चाहिए।
मैंने 'विश्वरूपम' नहीं देखी, इसलिए फिल्म पर टिपण्णी करना मुनासिब नहीं समझता हूँ, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढोल पीटने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से इतना ज़रूर मालूम करना चाहता हूँ कि दूसरे पक्ष को सुने बिना अपनी बात को थोपना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कैसे हो सकता है? अगर कल को कोई आतंकवाद के समर्थन या खून खराबे के लिए उकसाने वाली फिल्म बनता है तो क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उस फिल्म का भी समर्थन किया जा सकता है?
हालाँकि हर एक को अपनी बात रखने का पूरा हक है और होना भी चाहिए, लेकिन कोई फिल्म जैसी चीज़ एक ऐसा ज़रिया नहीं है जिसपर दूसरा पक्ष भी अपनी बात रख सके। किसी फिल्म इत्यादि के द्वारा उठाए गए मुद्दों पर मीडिया, सोशल मीडिया, सेमिनारों इत्यादि पर विमर्श तो हो सकता है लेकिन यह माध्यम सामान्यत: आम लोगो की पहुँच से दूर होते हैं। अर्थात इन माध्यमों से दूर बैठे लोग फिल्म इत्यादि के माध्यम से व्यक्त किये विचार को ही सच मान बैठते हैं। इस नज़रिए से देखा जाए तो फिल्म जैसे माध्यम किसी असहमति पर एक तरफ़ा फैसला सुनाने जैसा है। बड़ा सवाल तो यह है कि किसी पेंटर को तस्वीर बनाने के लिए अथवा फिल्मकार को फिल्म बनाने के लिए विवादित मुद्दे ही क्यों मिलते हैं?
सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभिव्यक्ति की अंध-स्वतंत्रता के पक्षधर यह लोग अपनी बात पर तानाशाही क्यों दिखाना चाहते हैं? वह स्वयं क्यों दूसरों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपना पक्ष रखने की आज़ादी को क्यों छीनना चाहते हैं? खुद ही मुद्दा उठाते हैं और खुद ही उसके सही होने पर फैसला भी सुनना चाहते हैं? अपने विरुद्ध उठने वाली आवाज़ पर सहनशीलता क्यों नहीं दिखाते? कमल हासन ने खुद क्यों नहीं कहा कि वह कोर्ट का फैसला आने के बाद ही फिल्म को प्रदर्शित करेंगे?
अगर किसी के द्वारा उठाए गए मुद्दे पर अदालत में विमर्श होता है और सही गलत का निर्धारण होता है तो इसमें कुछ भी गलत कैसे कहा जा सकता है? जिस तरह कमल हासन को हक है अपनी बात रखने का उसी तरह बाकी जनता को भी हक है विरोध जताने का। इसमें अगर कमल हासन और उनके साथ खड़े बुद्धिजीवी यह सोचते हैं कि इसका फैसला केवल कमल हासन की मर्ज़ी के मुताबिक ही हो तो क्या इस सोच को जायज़ ठहराया जा सकता है? अपने विरुद्ध फैसला आने पर कमल हासन का बौखलाहट दिखाना और देश छोड़ने की धमकी देना क्या कहा जाएगा?
अगर मामला कोर्ट में है तो कोर्ट को बिना राजनैतिक दबाव का ध्यान रखे दोनों ओर की दलील सुनकर फैसला सुनना चाहिए। इसमें कोर्ट को लगता है कि कमल हासन ने सही कहा तो उसे कहने के हक मिलना ही चाहिए और अगर ग़लत कहा तो कमल हासन तो क्या किसी को भी हरगिज़-हरगिज़ ऐसी इजाज़त नहीं होनी चाहिए।