नानी का आंगन
वो नानी का आंगन, वो बातें बनाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
वो 'हाथ के पंखे' की बात अलग थी,
अजब था सूकूँ, वो बहार अलग थी,वो 'हाथ के पंखे' की बात अलग थी,
वो नानी का पंखा हिला के सुलाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
वो सावन का मौसम, बहारो का मौसम,
वो सावन का मौसम, बहारो का मौसम,
वो मेंढक पकड़ना, वो किचड़ में चलना,
वो बारिश के पानी में किश्ती चलाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
वो तकियों पे तकिया लगाने की तरकीब,
वो बचपन की थी कुछ अजब सी ही तरतीब,
वो तकियों पर चढ़ना, छलांगे लगाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
उन तकियों की सीढ़ी बनाता था अक्सर,
मैं नानी को अपनी सताता था अक्सर,
यूँ मिट्टी की हांडी से मक्खन चुराना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।वो मिट्टी के चूल्हे पे खाना बनाना,
वो नानी का खिचड़ी पे मक्खन लगाना,
वो प्यारे से हाथों से मुझको खिलाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
वो मिट्टी की खूशबू, खलियानो की रौनक
वो सरसों के फूलों की मोहिनी सूरत
लगता था जन्नत यहीं है, यहीं है!
उस जन्नत की मस्ती में यूँ डूब जाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
वो नानी का आंगन, वो बातें बनाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
- शाहनवाज़ सिद्दीकी
Keywords:
Hindi Poem, Hindi Nazm
Suprb!!!
ReplyDeleteवो मिट्टी की खूशबू, खलियानो की रौनक
ReplyDeleteवो सरसों के फूलों की मोहिनी सूरत
लगता था जन्नत यहीं है, यहीं है!
उस जन्नत की मस्ती में यूँ डूब जाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।
Sahi me Jannat vahi he, vahi he.
SHAH NAWAZ ji, lagta hei ki aap bhi Gaon se talluk rakhte he. Sach me padhkar Nani Yad aagai! :)
ReplyDeleteबहुत ही भावुक और कर्णप्रिय कविता है शाह जी. बधाई!
ReplyDeleteअब 'हाथ के पंखे' का ज़माना कहा रहा???? अब तो ए. सी. का ज़माना आया गया है. गाँव का घर और 'हाथ का पंखा'. वाह जी वाह.
ReplyDeleteजी कई दिनों के बाद इधर आना हुआ है!आपकी कविता ने सच ए गुजरे हुए जमाने पहुंचा दिया!बहुत ही बढ़िया कविता!
ReplyDeleteकुंवर जी,
Rashmi G ne bilkul theek kaha Shah Ji. :)
ReplyDeleteबहुत ही भावुक और कर्णप्रिय कविता है शाह जी. बधाई
sahi he log kahte he nani ka aangan bahut bhata he
ReplyDeletemujhe bhi aam isan ki taraha bahut bhaya ye aangan
Gaon ki yaad aa gayi........
ReplyDelete"वो मिट्टी की खूशबू, खलियानो की रौनक
वो सरसों के फूलों की मोहिनी सूरत
लगता था जन्नत यहीं है, यहीं है!
उस जन्नत की मस्ती में यूँ डूब जाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।"
Wah Shahnawaz Bhai Wah! Kavita ke field mein bhi. Bahut Khoob!
ReplyDeletewah.....
ReplyDeletesacchi aapne mujhe apne bachpan ki ek jhalak dikhla di in panktiyon ke maadhyam se....
shukria shah bhai... :)
हमें भी याद आ गया गुजरा जमाना।
ReplyDelete--------
पड़ोसी की गई क्या?
गूगल आपका एकाउंट डिसेबल कर दे तो आप क्या करोगे?
दिल खुश कर दिया ...
ReplyDeleteवाह शाहनवाज़ साहब वाह
ReplyDeleteवाह .....सुन्दर रचना ..हमें भी बचपन की याद दिला दी ....अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeletehttp://athaah.blogspot.com/
वाह क्या लिखा हैं..मुझे मेरी नानीजी कि याद आ गयी शुरूआती पंक्तियाँ पढ़ कर ही...और फिर धीरे धीरे पूरा बचपन ही जैसे आँखों के सामने आकर नाचने लगा....सच उन बीते दिनिओं को बस याद ही किया जा सकता हैं...काश एक बार फिर से जिया जा सकता उन दिनों को....
ReplyDeletedhanyawad... mujhe apni nani ka angan yaad dilane ke liye.... touching poem... badhai :)
ReplyDeleteशाहनवाज़; तुमने बेहद उम्दा लिखा है.किसी ज़माने में ऐसा बचपन हर किसी का हुआ करता था. लेकिन अब ना वो जमाना ही रहा और ना ही वैसे लोग. मेरी आँखें भीग गईं अपने नाना-नानी को याद कर.
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत.....in both the versions..
ReplyDeletei wish i could read urdu too.
regards
anu