हमारी आस्था और उसके विरुद्ध लोगों की राय पर हमारा व्यवहार
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अक्सर लोग अपनी आस्था के खिलाफ किसी विचार को सुनकर मारने-मरने पर उतर जाते
हैं, उम्मीद करते हैं कि सामने वाला भी उतनी ही इज्जत देगा, जितनी कि हमारे
दिल में...
क्या 'हलाला' शरिया कानून का हिस्सा है?
योजना बनकर 'हलाला' करना शरीयत का हिस्सा नहीं है बल्कि इस्लाम के खिलाफ है। मैंने पिछली पोस्ट में बताया था कि इस्लाम के अनुसार तलाक़ क्या होती है और एक बार तलाक़ होने के बाद कोई भी महिला अपनी मर्ज़ी से दूसरा विवाह करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होती है। हाँ अगर किसी महिला की या उसके पति की उससे नहीं बनती और बदकिस्मती से फिर से तलाक़ की स्थिति आ जाती है। तो ऐसी अवस्था में वह महिला अपनी इच्छा से फिर से पहले पति से शादी कर सकती है।
क्या 'हलाला' शरिया कानून का हिस्सा है?
तलाक़ को इसलिए सख्त बनाया गया है कि पुरुष महिलाओं पर ज्यादतियां करने की नियत से इसका मज़ाक ना बना लें, जब चाहे तलाक़ दिया और फिर जब चाहे दुबारा विवाह कर लिया। इसीलिए तलाक़ के बाद वापिस दुबारा शादी की संभावना लगभग समाप्त हो जाती है। यहाँ यह भी बताता चलूँ कि इस्लाम में तलाक़ को सबसे ज्यादा नापसंदीदा काम माना गया है और केवल विशेष परिस्थितियों के लिए ही इसका प्रावधान है।
एक बार तलाक़ होने के बाद कोई भी महिला अपनी मर्ज़ी से दूसरा विवाह करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होती है। हाँ अगर किसी तलाकशुदा महिला का अपने पति या उसके पति का उसके साथ तालमेल नहीं बैठता और बदकिस्मती से फिर से तलाक़ की स्थिति आ जाती है। तो ऐसी अवस्था में वह महिला अपनी इच्छा से फिर से पहले पति से शादी कर सकती है, जिसे 'हलाला' कहा जाता है। अगर कोई जानबूझकर इस प्रक्रिया अर्थात 'हलाला' को दूबारा शादी के लिए इस्तेमाल करता है तो इस्लामिक कानून के मुताबिक उनके लिए बेहद सख्त सज़ाओं का प्रावधान है। सन्दर्भ के लिए यह लिंक देखा जा सकता हैं.
http://www.islamawareness.net/Talaq/talaq_fatwa0008.html
http://www.islamawareness.net/Talaq/talaq_fatwa0008.html
निकाह की हर एक सूरत में महिला और पुरुष दोनों की 'मर्ज़ी' आवश्यक है
इस्लामिक विवाह की रीती में किसी भी स्थिति में बिना किसी महिला अथवा पुरुष की मर्ज़ी के शादी हो ही नहीं सकती है। अगर किसी महिला / पुरुष से ज़बरदस्ती 'हाँ' कहलवाई जाती है और हस्ताक्षर करवाए जाते हैं तो इस सूरत में विवाह नहीं होता है। और क्योंकि ऐसी स्थिति में क्योंकि विवाह वैध नहीं होता है इसलिए अलग होने के लिए तलाक़ की आवश्यकता भी नहीं होती है। उपरोक्त संदर्भो से यह साफ़ हो जाता है कि योजनाबद्ध तरीके से किये गए हलाला की इस्लाम में रत्ती भर भी जगह नहीं है।
मैंने तीन बार तलाक़ हो जाने पर दुबारा विवाह को लगभग नामुमकिन इसलिए कहा था क्योंकि किसी भी महिला की मर्ज़ी के बिना पहली या दूसरी शादी हो ही नहीं सकती है और कोई भी महिला 'योजना बनाकर हलाला करने' जैसी घिनौनी हरकत को जानबूझकर क़ुबूल नहीं करेगी। अगर किसी महिला या पुरुष का इस्लाम धर्म में विश्वास है तब तो वह ऐसा गुनाह बिलकुल भी नहीं करेंगे और अगर विश्वास ही नहीं है तो उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता ही नहीं है, वह देश के सामान्य कानून के मुताबिक कोर्ट में शादी कर सकते हैं।
इस विषय के सन्दर्भ को समझने तथा टिप्पणियों के माध्यम से विचारों के आदान-प्रदान के लिए मेरी पिछली पोस्ट पढ़ें.
तलाक़ पर लेख और मेरी प्रतिक्रिया
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