क्या मंदिर-मस्जिद इंसान की जान से बढ़कर है?

हमेशा ही लोगो को मंदिर-मस्जिद, ज़ात-पात, हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर लडवाया जाता है. 90 के दशक अथवा उससे पहले लोग बहुत जल्दी बहकावे में आते थे, धीरे-धीरे जनता राजनैतिक दलों की चालों को समझने लगी, और फिर ऐसे राजनेताओं और राजनैतिक दलों को बाहर का रास्ता भी दिखाया गया. क्योंकि लोग जान गए थे कि मंदिर-मस्जिद की आड़ में हमारे साथ खेल खेला जा रहा है, ऊपर से आपस में लड़ने वाले अन्दर से मिले हुए हैं ताकि हमें बेवक़ूफ़ बनाया जा सके. लोग जान गए थे कि प्रेम से बढ़कर आनंद किसी बात में नहीं है, और हर धर्म प्रेम की ही शिक्षा देता है.

आजकल महसूस हो रहा है कि यह बीमारी ब्लॉग जगत को भी घेर रही है. चंद लेखक अपने-अपने धर्म की दुकानों को चलाए हुए हैं. हालाँकि इन दुकानों से किसी को भी परेशानी नहीं होनी चाहिए, परेशानी शुरू होती है इनके द्वारा अपने धर्म अथवा समाज की अच्छी बातों को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने की जगह दूसरों की आस्थाओं के अन्दर बुराइयाँ निकालने की प्रवत्ति से. अगर कोई ऐसी दुकान चलता भी है तो होना तो यह चाहिए कि पूरी मानवता के हित के लिए कार्य किये जाएं, लेकिन अगर यह नहीं हो पाता है तो कम से कम अपने समाज के हित के कार्य किये जाएं. अगर अपने समाज में कोई बुराई उत्पन्न हो गई है तो उसे दूर करने की कोशिश की जाए. अगर कोई उसकी अच्छाइयों को बुराई कहकर दुष्प्रचार कर रहा है तो समाज के बीच सही बात को बताया जाए, जिससे की सभी धर्मों की बीच सौहार्द उत्पन्न हो और एक दुसरे को अच्छे तरीके से जाना जा सके. लेकिन कुछ लोगो को तो दूसरों के धर्म में सारी बुराइयाँ नज़र आती हैं तथा कुछ लोगो को केवल दुसरे धर्म को मानने वाले लोगो में ही दुनिया की सारी कमियां नज़र आती हैं. हालाँकि समाज में नज़र दौडाओ तो पता चलता है कि बुराइयाँ हर समाज में हैं, लेकिन मुसलमान हमेशा हिन्दुओं को तथा हिन्दू हमेशा मुसलमानों को संदेह की निगाह से देखते हैं! कभी किसी ने सोचा है ऐसा क्यों? क्योंकि रह-रह कर कुछ लोग एक-दुसरे धर्म के अनुयायिओं के बारे में दुष्प्रचार करते रहते हैं, बल्कि यह कहें कि अपनी दुकानदारी चलाते रहते हैं.


मेरी नज़र में बुराई इन लोगो में नहीं बल्कि कहीं न कहीं हमारे अन्दर है, हम ऐसे लेखों को जहाँ दूसरों को गलियां दी जा रही हो, मज़े ले-लेकर पढ़ते हैं. क्या कभी हमने विरोध की कोशिश की? आज समय दूसरों को बुरा कहने की जगह अपने अन्दर झाँक कर देखने का है, मेरे विचार से शुरुआत मेरे अन्दर से होनी चाहिए.

दुनिया में कोई भी मस्जिद या मंदिर किसी एक इंसान की इज्ज़त से बढ़कर नहीं हो सकता फिर जान से बढ़कर कैसे हो सकता है?

मैं एक मुसलमान हूँ इसलिए उपरोक्त वाक्य कुरआन और हदीस की रौशनी में बता रहा हूँ, आपका सम्बन्ध जिस धर्म से हैं, अगर आप उसमे किसी भी ऐसी बात की जानकारी रखते हैं तो उसे यहाँ अवश्य लिखें, ताकि पुरे समाज में जागरूकता लाई जा सके.


सुज्ञ के अनुसार:

पूरे जगत में धरती का कोई कण ऐसा नहिं है,जहां से महापुरूषों ने जन्म धारण न किया हो,या ऐसा कोई अणु नहिं जिसका उपयोग महापुरूषों नें ग्रहण व विसर्जन करने में न किया हो।
अर्थार्त जगह विषेश किसी भी कारण से पूज्य या अपूज्य नहिं हो जाती।
धर्म स्थलों का उद्देश्य मानव के हितार्थ,शान्त चित से चिन्तन मनन के हेतू है। मानवता को उंचाईयां प्रदान करने हेतू साधना आराधना करें।
यही लक्षय है,और इसी कारण से महत्व होना चाहिए।



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अब पापा कौन बनेगा?

बाबू आज बहुत खुश था, नानी ने बताया कि पापा आने वाले हैं। वैसे वह पापा से नाराज़ था, दो महीने से पापा ने फोन पर भी बात नहीं की थी। नानी ने समझाया था कि "बाबू नाराज़ नहीं, होते पापा जल्द ही घर वापिस आ जाएंगे"। "लेकिन मुझसे बात तो कर सकते थे ना? उन्होंने मुझसे गिफ्ट का वादा किया था, और अब बात भी नहीं कर रहे हैं।" नानी ने समझाया था कि जब वह घर आएंगे तो बहुत से गिफ्ट लाएंगे, इसलिए जब से पता चला था कि पापा आने वाले हैं, तभी से वह बहुत खुश था।

उसने जल्दी-जल्दी पापा के बिस्तर को ठीक करना शुरू कर दिया। इतना छोटा होते हुए भी उसे पापा की पसंद-नापसंद याद आने लगी। पापा के पसंद की चादर पलंग पर बिछाई ही थी, कि नानी आकर उसपर बैठ गई। "नानी पलंग पर मत बैठिए, पापा आने वाले हैं, उनको सिलवट वाला बिस्तर पसंद नहीं है। मैंने पीली चादर बिछाई है, पता है यह उनको बहुत पसंद है!" बाबू की बात सुनकर नानी के आंखों में पानी आ गया।

थोड़ी देर बाद घर में औरतों की भीड़ लगनी शुरू हो गई। बाबू परेशान होने लगा कि आखिर यह भीड़ घर में क्यों आ रहीं है। घर में बाबू को छोड़कर कोई भी खुश नज़र नहीं आ रहा था, उन्हे देखकर उसे लगा कि ज़रूर कोई गड़बढ़ है। थोड़ी देर में एक गाड़ी घर के सामने आकर रुकी, जिसे देखते ही सभी लोग झट से बाहर चले गए। थोड़ी देर में लोगों ने पापा को आँगन में लाकर लिटा दिया। बाबू परेशान था कि आखिर पापा ऐसे क्यों लेटे हुए हैं? उनको सफेद कप़ड़े में क्यों लपेटा हुआ है? आखिर वह बात क्यों नहीं करते? लेकिन उसके सवालो का जवाब किसी के पास नहीं था। उसके पापा को दो महीने पहले एक गाड़ी रौंदती हुई निकल गई थी, वह दो महीने तक ज़िंदगी की जंग लड़ते-लड़ते आज हार गए थे। बाबू जैसे कहीं गुम हो गया, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। पापा की कितनी ही यादें चलचित्र की तरह उसकी आंखों के सामने घूम रही थी। बाबू के साथ खेलने वाला, उसके ज़रा से दुख में परेशान हो जाने वाला आज किसी की ज़रा सी लापरवाही की भेंट चढ़ गया है। वहीं दूसरी तरफ उसकी ज़िदंगी में विरानियों को भरने वाला उसका गुनाहगार, उसकी हालत से बेपरवाह, आराम से अपने परिवार और ज़िदंगी की रंगीनियों में व्यस्त है।

बाबू ने बड़ी ही मायूसी में छोटे भाई को बताया कि पापा अब वापिस नहीं आएंगे! उसने बड़ी ही मासूमियत से मालूम किया "तो अब हम किसके साथ खेलेंगे? मेरे खेल में 'अब पापा कौन बनेगा?'


- शाहनवाज़ सिद्दीकी



(ज़रा सी जल्दी अथवा मस्ती में गाड़ी चलाने के कारण लोग अन्जाने में ही कितने ही बाबू जैसे बच्चों की भावनाओं से खेलते हैं। आखिर कब लोग कानून का पालन करना शुरू करेंगे? क्या इस दौड़ की कोई हद भी है?)







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accident, Traffic, संवेदनहीनता

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उफ्फ! यह ट्रैफिक!

(दैनिक हरिभूमि के आज [26 जुलाई] के संस्करण में प्रष्ट न. 4 पर मेरा व्यंग्य)

हम गांव से दिल्ली के लिए स्कूटर लेकर निकल पड़े। माताजी ने समझाया कि बस से जाओ, लेकिन हमने सोचा कि स्कूटर से जाएंगे तो रौब पड़ेगा। बार्डर पहुंच कर जैसे ही प्रवेश की कोशिश की तो मामाजी ने रोक लिया। पेपर चेक करने के बाद भी जब कुछ नहीं मिला तो बोले, "क्या पहली बार दिल्ली आए हो?" हमने गर्व से कहा "नहीं जी आता रहता हूँ।" "फिर भी बिना लाईट की गाड़ी चला रहे हो!" हमने कहा "अभी तो दिन है, पहुंच कर ठीक करवा लूंगा।" गुर्राकर बोले "रास्ते में रात हो गई तो?" "पेड़ के पास खड़े पानी वाले को हरी पत्ती थमा कर निकल जा।" समझ में तो कुछ आया नहीं, सोचा उसी से मालूम करते हैं। उसने बताया "भैया हरी पत्ती का मतलब सौ रूपया वर्ना स्कूटर ज़ब्त।" बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाया और भगवान का नाम लेकर आगे चल दिया। कुछ दूर चलने पर लाल बत्ती मिली, हरी होने पर हमने अपने स्कूटर में किक मारी, मगर यह क्या! सामने से एक धनधनाती हुई बाईक हमारे स्कूटर को ज़मीदौज़ करते हुए निकल गई। शायद उस भले मानुष को अपनी लाल बत्ती दिखाई नहीं दी। हम अपनी चोटों पर करहाते हुए बड़ी मुश्किल से उठे और अपनी शर्म को छुपाते हुए किसी तरह स्कूटर को स्टार्ट करके आगे चल दिए। कुछ दूर ही चले थे कि एक गाड़ी हमारे बाएं हाथ की तरफ से ओवरटेक करते हुए तेज़ी से निकली। ड्राइवर चिल्लाया "चलना नहीं आता तो दिल्ली में आते ही क्यों हों?" बड़ी मुश्किल से अपने स्कूटर को संभाला, लेकिन समझ में नहीं आया कि हमारी गलती क्या थी? सोचा कि शायद हमें ही हार्न सुनाई ना दिया हो और बेचारा मजबूरी में उलटी तरफ से निकला हो! जब समझ के कुएं से पानी नहीं निकला तो हमने आगे चलने में ही भलाई समझी।

अल्ला-अल्ला करते हुए आगे बढ़े, तो देखा कि एक कार सवार रफ्तार के नशे में साईकिल सवार को नहीं देख पाया। वैसे भी गरीबों को देखता कौन है, उसने ही नहीं देखा तो क्या गुनाह किया? मैंने गुहार लगाई कि इसको अस्पताल ले चलो, तो एक चिल्लाया "पागल हो गया है क्या? पुलिस को जवाब कौन देगा?" "यार! एक मरते हुए की जान बचाने में पुलिस क्यों सवाल करेगी?" एक व्यक्ति ने फिर वही सवाल किया "अबे, दिल्ली में नया आया है क्या?" हमने झेंप मिटाने के इरादे से कहा "नहीं जी, आता रहता हूँ" तो एक तपाक से बोला "फिर बेवकूफी की बातें क्यों कर रहा है?" जब पुलिस उसे लेकर चली गई तो जान में जान आई।

गाड़ियों की रफ़्तार देखकर लगता है जैसे कोई इनके पीछे पड़ा है, कुछ पलों की जल्दी में हम कितनी ही जानों को खतरे में डाल देते हैं। सड़क हादसों के कारण हज़ारों लोग अपनी जान अथवा शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगो से हाथ गवां बैठते हैं। अनेक सवालों के साथ हम तो अपनी मंज़िल पर पहंच गए, लेकिन कितने लोग मंज़िल को पहुंचते होंगे, कभी किसी ने सोचा है?


-शाहनवाज़ सिद्दीकी



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दैनिक हरिभूमि, व्यंग, व्यंग्य, Hindi Critics

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ग़ज़ल: मुझको तेरा ख्याल आता है




जब भी चाँद आसमाँ में आता है
तेरा चेहरा चुरा के लाता है
जब कोई गीत नया लिखता हूँ
मुझको तेरा ख्याल आता है

भँवरे मद-मस्त हो कर चलते हैं
फूल तेरी तरह मुस्काता है
क्योंकि यह कारनामा ऐ हमदम
यहाँ बस आपको ही आता है

झरना तेरी तरह ही शीतल है
धारा तेरी तरह ही अवकल है
तेरी अंगडाईयाँ हैं दरिया में
सबको तेरा हुनर ही आता है

बादलों में तेरी रवानी है
बारिशों में तेरी जवानी है
बिजलियों में अदा तुम्हारी हैं
मौसम तेरी तरह सताता है

इश्क में जोश है तेरा हमदम
हुस्न तेरी तरह शर्माता है
दोस्ती में तेरी ही खुशबु है
वफ़ा का तुझ से ही तो नाता है

- शाहनवाज़ सिद्दीकी "साहिल"



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व्यंग्य: "दिल का बिल"

इश्क के फंडे का सबसे अधिक फायदा उठाया है मोबाईल फोन कंपनियों ने। इधर इश्क के परवाने मोबाईल के ज़रिए रात दिन प्यार की पींगे बढ़ाते हैं और उधर इनका मीटर दौड़ता रहता है। आखिर दिल में बिल की परवाह कौन करता है? रोज़ ही प्रेम के परवानों को फांसने के लिए नए-नए फोन और लुभावने प्लान बाज़ार में उपलब्ध होते हैं। बेचारे प्रेमी! बज़ार में प्लान भी प्रेमिका के स्वभाव के अनुसार ही आते हैं। जैसे कि नींद कम आती है तो रात्रि में फ्री टॉकटाइम प्लान, पढ़ने का शौक है तो फ्री एसएमएस प्लान। नया फोन बाज़ार में आते ही धड़कन और भी तेज़ी से ब़ढ़ जाती हैं, कहीं इस फोन की डिमांड ना आ जाए! इसलिए फोन के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ कोशिश शुरू। दुकानदार बताना शुरू करता है "जी इसमें यह फीचर.....!" "अरररर! यह क्या बता रहे हो? सीधे-सीधे बताओ कि है कितने का?" प्रेमिका से अगर शिकायत कर दी कि "फोन क्यों नहीं किया?" बस प्रेमिका शुरू "फोन में बेलेंस होता तो करती ना।" इतना सुनने पर भी अगर प्रेमी बेलेंस ना डलवाए तो फिर प्रेमी ही कैसा? दौड़ पड़ते हैं रिचार्ज कूपन खरीदने। यह तो बाद में पता चलता है कि कॉलेज की फीस को प्रेमिका के नए मोबाईल में और जेबखर्च को रिचार्ज कराने में बंटाधार करा चुके है।

जब फोन पर बातचीत करने का सिलसिला शुरू होता है, तो प्रेमी की धढ़कन बिल पर टिकी होती है। इधर प्रेमिका चाहती है कि खूब देर तक बातें होती रहें, उधर प्रेमी फोन काटने का बहाना ढ़ूंढ़ते रहते हैं। वैसे बहाना चलता नहीं है! प्रेमिका कहती है "सुनो, कल लंच पर मिलते हैं", इधर प्रेमी "लेक्चर अटेंड करना है।" प्रेमिका "अरे यार! यह लेक्चर तो मैं तुम्हे लंच पर ही समझा दुंगी।" अब बेचारा लेक्चर के कारण लंच पर आने से मना करता तो उसकी समझ में बात आती भी। कुछ कह दिया तो समझो कयामत आ गई, "फोन तो मैंने किया है और बिल की परवाह तुम कर रहे हो?" अब प्रेमिका को समझाए कौन कि बिल तो उसने ही देना है। खिसियाते हुए बोलता है "यार! बिल तुम्हारा हो या मेरा बात तो एक ही है" इस पर प्रेमिका खुश! हालांकि बात प्रेमी की एकदम सही है, क्योंकि खर्च चाहे प्रेमिका करे बिल तो प्रेमी के ही पल्ले पड़ना है। मतलब छुरी खरबू़ज़े पर गिरे या खरबूज़ा छुरी पर, कटता तो खरबूज़ा ही है।

वैसे प्रेमिका की बातें भी अजीब ही होती हैं, लंच पर चलने का इसरार करते हुए कहती हैं कि "चलो आईसक्रीम मैं खिला दूंगी।" उसे पता है कि आप उसको बिल तो देने नहीं देंगे, चाहे अन्दर से कितना ही चाहें। इसलिए बोल दो, बोलने में क्या जाता है। बाद में तुर्रा यह कि आईसक्रीम तो उसकी तरफ से थी, पैसे आपने क्यों दिए? बेचारा मन ही मन खीजने के सिवा और कर भी क्या सकता है। एक अदद प्रेमिका रखना इतना आसान थोड़े ही है।

दिल का बिल तो नहीं आता है लेकिन बिल के लिए दिल अवश्य ही चाहिए।


(हरिभूमि के आज [19 जुलाई) के संस्करण में प्रष्ट न. 4 पर मेरा व्यंग्य)


-शाहनवाज़ सिद्दीकी

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इंतज़ार

मुझे इंतज़ार है

साहिल को ढूँढती है, मेरी डूबती नज़र,
ना जाने कौन मेरा, समंदर के पार है।

शायद नहीं उस पार है, मेरी वफा-ए-ज़िन्दगी,
क्यूँ कर के फिर उस शख्स का, मुझे इंतज़ार है।





तेरे इंतज़ार में

नज़रें यह थक गई हैं, तेरे इंतज़ार में,
हर शै गुज़र गई है, तेरे इंतज़ार में।

आकर तो देख ले, मेरे बेचैन दिल का हाल,
कहीं जाँ ना निकल जाए, तेरे इंतज़ार में।


- शाहनवाज़ सिद्दीकी "साहिल"

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हिंदी से बेरूखी क्यों?

(दैनिक जागरण के आज (दिनांक 14 जुलाई) के राष्ट्रिय संस्करण के कॉलम "फिर से" में प्रकाशित)

हमारी महान मातृभाषा हिंदी हमारे अपने ही देश हिंदुस्तान में रोजगार के अवसरों में बाधक है। हमारे देश की सरकार का यह रुख अभी कुछ दिन पहले ही सामने आया था। बोलने वालों की संख्या के हिसाब से दुनिया की दूसरे नंबर की भाषा हिंदी अगर अपने ही देश में रोजगार के अवसरों में बाधक बनी हुई है तो इसका कारण हमारी सोच है। हम अपनी भाषा को उचित स्थान नहीं देते हैं, बल्कि अंग्रेजी जैसी भाषा का प्रयोग करने में गर्व महसूस करते हैं।

मेरे विचार से हमें अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। हमें कार्यालयों में ज्यादा से ज्यादा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए। कोरिया, जापान, चीन, तुर्की एवं अन्य यूरोपीय देशों की तरह हमें भी अपने देश की सर्वाधिक बोले जाने वाली जनभाषा हिंदी को कार्यालयी भाषा के रूप में स्थापित करना चाहिए और उसी स्थिति में अंग्रेजी प्रयोग करने की अनुमति होनी चाहिए, जबकि बैठक में कोई एक व्यक्ति ऐसा हो, जिसे हिंदी नहीं आती हो।

कोरिया का उदहारण लें तो वह बिना इंग्लिश को अपनाए हुए ही विकसित हुआ है और हम समझते हैं की इंग्लिश के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी भाषा को छोड़कर दूसरी भाषाओं को अधिक महत्व देते हैं। अंग्रेजी जैसी भाषा को सीखना या प्रयोग करना गलत नहीं है, लेकिन अपनी भाषा की अनदेखी करना गलत ही नहीं, बल्कि देश से गद्दारी करने जैसा है। अपनी भाषा को छोड़कर प्रगति करने के सपने देखना बिलकुल ऐसा है, जैसे अपनी मां का हाथ छोड़ किसी दूसरी औरत का हाथ पकड़ कर चलना सीखने की कोशिश करना। हो तो सकता है कि हम चलना सीख जाएं, लेकिन जब गिरेंगे तो क्या मां के अलावा कोई और उसी तरह दिल में दर्द लेकर उठाने के लिए दौड़ेगी? हम दूसरा सहारा तो ढूंढ़ सकते हैं, लेकिन मां के जैसा प्रेम कहां से लाएंगे?

पृथ्वी का कोई भी देश अपनी भाषा छोड़कर आगे बढ़ने के सपने नहीं देखता है। एक बात और, हिंदी किसी एक प्रांत, देश या समुदाय की जागीर नहीं है, यह तो उसकी है, जो इससे प्रेम करता है। भारत में तो अपने देश की संप्रभुता और एकता को सर्वाधिक महत्व देते हुए वार्तालाप करने में हिंदी को प्राथमिकता देनी चाहिए। कम से कम जहां तक हो सके, वहां तक प्रयास तो निश्चित रूप से करना चाहिए। उसके बाद क्षेत्रीय भाषा को भी अवश्य महत्व देना चाहिए, क्योंकि भारत की अनेक संस्कृतियां क्षेत्रीय आधार पर ही विकसित हुई हैं।

आज महान भाषा हिंदी रोजगार के अवसरों में बाधक केवल इसलिए है, क्योंकि हमें अपनी भाषा का महत्व ही नहीं मालूम है। जब हमें अपनी भाषा, अपने देश, आम हिंदुस्तानियों पर गर्व होना शुरू हो जाएगा। हमारा भारत फिर से सोने की चिडि़या बन जाएगा।



- शाहनवाज़ सिद्दीकी


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आस्था का सवाल और धर्म परिर्वतन

हर किसी को मृत्यु के बाद स्वयं अपने प्रभु के सामने खड़े होना है और उत्तर देना है कि पृथ्वी लोक में ईश्र्वर के बताए हुए रास्ते पर चला अथवा नहीं? क्योंकि उत्तर स्वयं देना है इसलिए आस्था का मामला भी एकदम निजी है, इसमें किसी और का हस्तक्षेप तो हो ही नहीं सकता है, क्योंकि आस्था का संबंध हृदय से होता है इसलिए मनुष्य उसी राह पर चलता है जिस पर उसका दिल हां कहता है।

ईश्र्वर एक है और उसका सत्य मार्ग भी एक ही है। इसलिए मनुष्य के लिए यह कोई मायने रखता ही नहीं कि वह किसी मुसलमान के घर पैदा हुआ है या फिर हिंदू अथवा इसाई के घर। उसे तो बस अपने ईश्र्वर से सत्य के मार्ग को दिखाने की प्रार्थना एवं प्रयास भर करना है, क्योंकि अब यह ईश्र्वर का कार्य है कि अमुक व्यक्ति को अपने सत्य का मार्ग दिखलाए।

प्रभु के सत्य मार्ग को पहचानना धरती के हर मनुष्य के लिए एक समान है। प्रभु को पाने के लिए इच्छा करना और इसके लिए प्रयास करना ही सब कुछ है, आगे का काम तो स्वयं उस ईश्र्वर का है। ईश्र्वर ने हमें अवसर दिया है पृथ्वी पर धर्म अथवा अधर्म पर चलने का ताकि इसके अनुसार स्वर्ग अथवा नर्क का फैसला हो सके। इसलिए कोई भी व्यक्ति अपनी आस्था के अनुरूप जीवन व्यतीत कर सकता है। ईश्र्वर जिसे चाहता है, धर्म की सही समझ देता है, परंतु वह ना चाहने वालो को धर्म की सही समझ नहीं देता। अगर किसी ने ईश्र्वर को पाने की और उसके सत्य मार्ग को जानने की कोशिश ही नहीं की और अंधे-गूंगों की तरह वही करता रहा जो उसके मां-बाप, परिवार वाले करते आ रहे हैं तो वह अवश्य ही गुमराह है। चाहे उसका उद्देश्य अच्छा ही हो। ईश्र्वर को पाना है तो उसके पाने की इच्छा और प्रयास करना ही पड़ेगा।

अब प्रश्न उठता है कि क्या आस्था मजबूरी अथवा लालच में बदली जा सकती है? और क्या पूर्वजो ने मजूरी में इस्लाम धर्म स्वीकार किया? धर्म का संबंध आस्था से होता है और आस्था का संबंध हृदय से होता है। और कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परंतु अपने हृदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है। हृदय को तो पता होता है कि उस पर किस का राज है। इसलिए धर्मपरिवर्तन में मजबूरी की बात कहना ही गलत है। जहां तक मान्यता की बात है तो इससे किसी को फर्क नहीं पड़ना चाहिए। नाता तो ईश्र्वर से है और वह अरबी, भारतीय या किसी और देश के वासी की नजर से नहीं देखता है, बल्कि किसी के कर्मो और उसके प्रति प्रेम पर निगाह डालता है। सर पर तलवार लटकी हो तो भले ही एक क्षण के लिए कोई हां कह दे, लेकिन आस्था किसी भी मजबूरी में आखिरकार बदली नहीं जा सकती है।

अंजुमन ब्लॉग में शाहनवाज सिद्दीकी




"हमारी अंजुमन" के लिए लिखा मेरा लेख दैनिक जागरण ने दिनांक 10 जुलाई को अपने राष्ट्रिय संस्करण में "आस्था का सवाल और धर्म परिर्वतन" शीर्षक के साथ प्रष्ट नंबर 9 (विमर्श) के कॉलम "फिर से" पर प्रकाशित किया.

"हमारी अंजुमन" पर मूल लेख को पढने के लिए यहाँ चटका लगाएँ


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Dainik Jagran, Hamari Anjuman, दैनिक जागरण, धर्म परिर्वतन, हमारी अंजुमन

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क्या अब आपका नंबर है?

एक 21 साला यौवना को तलाश है एक सुयोग्य वर की. आपको बताते चलते हैं कि वह 2000 करोड़ की संपत्ति की मालकिन है. :-)

अब सारा समय ख्वाब देखने में ही मत लगाइए, चलिए मैं आपको उसकी फोटो दिखा देता हूँ. जिसे देखकर आप स्वयं निर्णय ले सकते हैं कि...........

क्या अब आपका नंबर है? ;-)







परेशान क्यों हो रहे हैं? आगे भी बता रहा हूँ! इस युवती का नाम निशिता शाह है और यह फोर्ब्स में नाम पाने वाली भारतीय मूल की पहली महिला हैं। फोर्ब्स पत्रिका दुनिया के सबसे रईस लोगों की सूची बनाती है। उसने निशिता को आगामी पीढ़ी की एशियाई अरबपतियों की 40 नाम वाली सूची में 19वें नंबर पर रखा है।

निशिता ने बोस्टन अमेरिका से बिजनस एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स पूरा किया है। उसके पास अपना प्लेन भी है और पायलट का लाइसेंस भी। सबसे दिलचस्ब बात यह है कि निशिता शाह को तलाश है मिस्टर राइट की।

निशिता मूलत: गुजरात मूल की है तथा उसका मशहूर "शाह परिवार" इस समय थाईलैंड में बसा है और वहां के सबसे रईस परिवारों में से एक है। इनके जीपी ग्रुप के बिज़नस में 44 विशाल शिप भी हैं। शाह परिवार मूलत: कच्छ का है। 1868 में यह मुंबई आ बसा था। इसके बाद यह परिवार 1918 में बैंकॉक में सेटल हो गया।

तीन संतानों में सबसे बड़ी निशिता कहती हैं कि उसके मां-बाप अब कहने लगे हैं कि वह शादी करके सेटल हो जाए। वहीँ वह सीक्रेट बताती हैं कि "मुझे अभी मेरा मिस्टर राइट नहीं मिला है।"




अर्रर्रर्र!!!!!!!!! थाईलेंड की ओर आराम से भागो यार......... लड़ क्यों रहे हो???????????

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इक रोज़ जब मैंने उसे हँसते हुए देखा


इक रोज़ जब मैंने उसे हँसते हुए देखा,
चेहरे पे कई बिजली चमकते हुए देखा।

महसूस हो रहा था क़यामत है आ गई,
रुखसार से घूँघट जो सरकते हुए देखा।

अनजानी सी ख़ुशी से होंट काँप रहे थे,
आंसू का एक कतरा छलकते हुए देखा।

उसका करीब आना यूँ महसूस हो गया,
हाथों में चूड़ियाँ जो खनकते हुए देखा।

उसने यूँ रख दिया मेरे हाथो पे अपना हाथ
अंगार जैसे कोई दहकते हुए देखा।


- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'





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Ghazal, Smyle, अंगार, ख़ुशी, चूड़ियाँ, बिजली, महसूस, हँसते हुए

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इश्क़ की मंजिल



इश्क़ की मंजिल

महबूब नींद, माशूक ख़्वाब और इश्क़ रात की तरह है।
जिस तरह रात में नींद और ख़्वाब का मिलन अक्सर होता है,
उसी तरह आशिक़ और माशूक़ का मिलन भी रातनुमा इश्क़ में होता है।

मगर यह ज़रूरी नहीं कि हर रात की नींद में ख़्वाब आए!
इसी तरह आशिक़ों का मिलन भी हर इक की किस्मत मैं नहीं होता।



- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'

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बाहर मानसून का मौसम है




बाहर मानसून का मौसम है,
लेकिन हरिभूमि पर
हमारा राजनैतिक मानसून
बरस रहा है।

आज का दिन वैसे भी खास है,
बंद का दिन है और हर नेता
इसी मानसून के लिए
तरस रहा है।


मानसून का मूंड है इसलिए
इसकी बरसात हमने
अपने ब्लॉग
प्रेम रस
पर भी कर दी है।

राजनैतिक गर्मी का
मज़ा लेना,
इसे पढ़ कर
यह मत कहना
कि आज सर्दी है!

मेरा व्यंग्य: बहार राजनैतिक मानसून की

- शाहनवाज़ सिद्दीकी "साहिल"

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बहार राजनैतिक मानसून की

मौसम तो मानसून का है लेकिन आजकल राजनैतिक मानसून की बहार है। भय्या चाहे बारिश की बौछारें लोगों पर पड़े ना पड़े लेकिन नेता छाप भाषणों की बौछारें सारे देश को भिगो रहीं है।

मुद्दा चाहे कितना ही गम्भीर हों, लेकिन नेता जी उसमें भी अपना उल्लू सीधा करने का मौका ढूंढ ही निकालते हैं। मज़े की बात तो यह है कि जब विपक्षी नेता सरकार बनाते है तो अपने द्वारा किए गए विरोध को भूलकर खुद भी उन्ही कार्यो में मस्त हो जाते है। गोया विरोध का नाता केवल विपक्ष की कुर्सी से ही है। वैसे यह बात भी महत्वपूर्ण है कि अगर हल निकल गया तो नया मुद्दा कहां से मिलेगा? पक्ष हो या प्रतिपक्ष, सबका लक्ष्य जनता को उल्लू बनाना ही तो हैं। वैसे हमें उल्लू बनना भी चाहिए, क्योंकि अगर जनता उल्लू ही नहीं बनेगी तो फिर देश के कर्णधारों के रोज़गार का क्या होगा? जनता चुनाव में एक-दूसरे को लाठी-डंडा तो मार सकती है, लेकिन किसी के रोज़गार पर लात कैसे मार सकती है?

सबसे बड़ी बात तो यह कि भारत की जनता तमाशबीन है तो दिल लगाने के लिए कुछ ना कुछ तमाशा भी तो चाहिए। आप स्वच्छता अभियान चलाईये, अकेले ही झाड़ू हाथ में लिए नज़र आएंगे। उधर सड़क छाप नेताओं का साथ देने के लिए भी हज़ारों की तादाद में भी़ड़ इकट्ठी हो जाएगी।

हम बात कर रहे थे भाषण की, नेताओं को सबसे अधिक शौक इसका ही होता है। चाहे मुद्दा कोई भी हो, एक अदद भाषण अवश्य होना चाहिए। किसी अच्छे से अच्छे काम का भी अगर दूसरे पक्ष ने समर्थन कर दिया तो बस फिर क्या, हो गई कमियां निकलनी शुरू। आजकल हाईटेक ज़माना है, किसी मुद्दे पर विरोध की लाईन ना मिले तो मार्किटिंग कम्पनियां हैं ना? यह किसी भी मुद्दे की कमियां निकालने और नए मुद्दे तलाशने से लेकर इस बात तक का ध्यान रख सकती हैं कि नेता जी कैसे दिखें तथा क्या बोलें। यहां तक कि किससे मिलें, मतलब जिससे नहीं मिलना है उससे छुपकर मिलें। गिरगिट की क्या औकात इनके सामने। वैसे नेतागिरी के फायदे भी हैं, अगर किसी ने पढ़ाई नहीं कि तो उसे यहां आराम से रोज़गार मिल सकता है। चैकिदारी करने के लिए पढ़ाई की आवश्यकता पढती है, देश चलाने के लिए थोड़े ही।

चलते-चलते एक सीन याद आ गया, क्षेत्र में बाढ़ आने से एक नेता जी बहुत खुश होते हैं और सेकेट्री से दो तरह के वक्तव्य तैयार करके करने के लिए कहते हैं। "अगर मुख्यमंत्री क्षेत्र का मुआयना करने हैलिकाप्टर से पहुंचे तो हम वक्तव्य देंगे कि देखो भय्या! यहां जनता परेशान है और मुख्यमंत्री जी लोगों का हाल-चाल जानने की जगह हैलिकाप्टर से ही देखकर चले गए। और अगर वह सड़क मार्ग से जनता के बीच गए तो हमारा वक्तव्य होगा कि अगर मुख्यमंत्री जी हैलिकाप्टर से क्षेत्र का मुआयना करते तो कम से जनता को ऊपर से अन्न तो पहुंचा सकते थे। अब ऐसे में सिवा वादों के और क्या देंगे?"




(हरिभूमि के आज के संस्करण में मेरा व्यंग्य)


-शाहनवाज़ सिद्दीकी



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Critics, Haribhumi, व्यंग, व्यंग्य, हरिभूमि

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धार्मिक विचारों का विरोध

आजकल धर्म के खिलाफ बोलना फैशन समझा जाने लगा है। चाहे बात तर्कसंगत हो अथवा ना हो, लेकिन ऐसे विचारों के सर्मथन में हज़ारों लोग कूद पढ़ते हैं। ऐसे विचारकों को "सुधारवादी" जैसी उपाधियों से अलंकरित किया जाता है। जिस तरह आस्था के मामले में आमतौर पर तर्क को तरजीह नहीं दी जाती है, वैसे ही इस क्षेत्र में भी सिक्के के केवल एक पहलू को देख कर ही धारणा बना ली जाती है। धर्म के अंधविश्वासी समर्थकों की तरह ही धर्म के खिलाफ सोच रखने वालो के अंदर भी यही धारणा घर कर लेती हैं कि "उनकी सोच ही सत्य है"। इसलिए ऐसे लोग धामिर्क पक्ष में तर्क देने वालों की बात को कुतर्क का दर्जा देकर नकार देते है। अक्सर धार्मिक नियमों के खिलाफ बनी धारणा के मुकाबले कोई और बात सोचना गवारा नहीं किया जाता है। अगर कोई किसी ऐसे विचार अथवा सिद्धांत के खिलाफ तर्कसंगत बात करता भी है तो उसे "दकियानूसी" जैसे उच्चारणों से पुकारा जाता है।

धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ कार्य करना तो समझ में आता है, लेकिन अच्छी बातों के खिलाफ भी आवाज़ उठाना समझ से परे है। हालांकि निजी जीवन में यह तथाकथित नास्तिक स्वयं भी अनेकों धार्मिक कर्मकाण्डों में लिप्त दिखाई देंगे, लेकिन सार्वजनिक जीवन में सेकुलर बनने की कोशिश हृदय में बैठी आस्था की भावना को ज़बरदस्ती दबा देती है। अक्सर ऐसे लोग धर्म के मुकाबले विज्ञान को तरजीह देते हुए ‘ईश्वर के दिखाई ना देने’ अथवा ‘ईश्वर को किसने बनाया’ जैसी बातों पर धर्म का माखौल उड़ते नज़र आते हैं, लेकिन तर्क से निकले प्रश्नों का उत्तर स्वयं उनके पास भी नहीं होता है। यह लोग धर्म पर उत्तर ना होने का तो आरोप लगाते हैं लेकिन स्वयं उत्तर ना होने को भविष्य में होने वाली खोज की संभावना का बहाना देकर टाल देते हैं। या फिर ऐसे कमज़ोर उत्तर देते हैं जिनको कोई भी स्वस्थ मस्तिष्क कुबूल नहीं कर सकता है। इंसानी तर्को पर खुद तो हमेशा पूरा नहीं उतरते हैं लेकिन चाहते हैं कि धार्मिक नियम पूरे उतरें।

हालांकि विज्ञान और धर्म एक दूसरे के पूरक है, लेकिन हमेशा धर्म को विज्ञान विरोधी घोषित किया जाता है ताकि विज्ञान को पसंद करने वाले लोग नास्तिक बन सकें। यह लोग विज्ञान को अंतिम सत्य मानते हैं और इसी सोच के कारणवश धर्म को महत्त्वहीन करार दे देते हैं। हालांकि विज्ञान को कभी भी अंतिम सत्य नहीं कहा जा सकता है, अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जिनको विज्ञान ने पहले नकारा लेकिन बात में मान लिया। क्योंकि विज्ञान की मान्यताएं खोज और अनुमानों पर आधारित ही होती हैं, इसलिए हर नई खोज के बाद पुरानी मान्यता समाप्त हो जाती है तथा अनुमानों के गलत पाए जाने पर नए अनुमान लगाए जाते हैं। अर्थात अगर किसी एक नियम पर आज सारे वैज्ञानिक एकमत हैं तो यह ज़रूरी नहीं कि कल भी एकमत होंगे। क्या उस ज्ञान को पूरा कहा जा सकता है जिसकी स्वयं की मान्यताएं कुछ समय के उपरांत बदल जाती हो? यह बात इस ओर इशारा करती है कि कहीं ना कहीं कोई पूर्ण ज्ञान अवश्य है और वही धर्म है।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी


Keywords:
Religion, धार्मिक विचार

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