आस्था या अंध-भक्ति

मुझे नहीं लगता कि कोई भी धार्मिक व्यक्ति कभी भी किसी बाबा या तांत्रिक के चक्कर में पड़ कर अपनी इज्ज़त-आबरू या पैसा बर्बाद कर सकता है... हाँ अंध-भक्त हमेशा ऐसा ही करते हैं। कितना सरल है ऐसे बाबाओं को पहचानना... अनैतिकता, पैसों के लालच का धर्म से कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता है।

हमें यह समझना होगा कि यह सारी खराबी धर्म के साथ पैसे के घाल-मेल से ही शुरू होती हैं। अगर आप कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो सबसे अच्छा है कि ज़रुरतमंदों की मदद की जाए।

सबसे बड़ी कमी हमारी इस सोच में है कि जो धार्मिक है वह कभी गलत हो ही नहीं सकता है। और इसीलिए हम खोजबीन अथवा अपनी अक्ल लगाने की जगह उस पर आंख मूँद कर विश्वास कर लेते हैं। हम जिसे बड़ा मानते हैं कभी तहकीक ही नहीं करते कि वह जो कह रहा है वह धर्म सम्मत है भी या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह फ़कीर के भेस में शैतान हो।

किसी बाबा या धार्मिक स्थल पर दान देने से समाज का भला होने वाला नहीं है बल्कि इससे ही हज़ारों-लाखों धर्म की दुकाने चल निकली हैं। अगर धार्मिक स्थलों अथवा बाबाओं को दान देने पर रोक लगा दी जाए और हर एक धार्मिक नेता की बातों को आंखे बंद करके विश्वास कर लेने की जगह उसकी सच्चाई पर खोजबीन शुरू कर दी जाए तो धार्मिक दुकानदारी की समस्या जड़ से ही समाप्त हो जाएगी।

अभी पिछले दिनों कश्मीर में एक ढोंगी बाबा (गुलजार अहमद बट) युवतियों को पवित्र करने के नाम पर उनका दैहिक शोषण करता रहा और बेवक़ूफ़ अंध-भक्त उसके जाल में फंसते रहे। उसका कहना था कि जन्नत का रास्ता उसके साथ सेक्स करने से खुलता है... हद है बेवकूफी की भी। आखिर किसी अनैतिक कार्य का धर्म से सम्बन्ध कैसे हो सकता है?

धर्म सजगता सिखाता हैं अंध-भक्ति नहीं, ना तो किसी को धौखा दिया जाए और इतनी सजगता कि कोई हमें धौखा दे भी ना पाए।




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हिंसा के कुतर्क


"लोकतंत्र कमज़ोर है, वोट खरीदे जाते है, बूथ कैप्चर किये जाते है, मतगणना मे धांधली करवाई जाती है, विधायक और सांसद खरीदे जाते है, पूंजीवादी व्यवस्था है, भ्रष्टाचार फैला हुआ है" इत्यादि-इत्यादि.... यह सब हिंसा के समर्थन की कमज़ोर दलीलें बनी हुई हैं। जब लोग हिंसा के समर्थक होते हैं तो इसी तरह की कमज़ोर दलीलों को हथियार बना लेते हैं, उन्हें अपने से इतर विचार रखने वालों का खून बहना आसान तथा बदलाव के अहिंसक प्रयास असंभव लगते हैं। ऐसे लोग खास तौर पर लोकतंत्र के विरोधी होते हैं, क्योंकि उनकी नज़रों में उनके विचार ही अहमियत रखते हैं। इसी कारण  वह बाकी दुनिया के विचारों को रद्दी की टोकरी के लायक समझते हैं और उन विचारों को ज़बरदस्ती  कुचल देना चाहते हैं। और इसीलिए वह हिंसा का सहारा लेते हैं, जबकि हिंसा को किसी भी हालत में समाधान नहीं कहा जा सकता है... अगर सिस्टम ठीक नहीं है तो फिर सिस्टम को ठीक करने के प्रयास होने चाहिए।

ऐसा नहीं हैं कि हिन्दुस्तान में एक सीट पर भी लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव नहीं जीता जाता और सारी की सारी भारतीय जनता ही भ्रष्ट हैं। फिर अगर एक सीट भी जीती जा सकती है तो प्रयास से बाकी जगहों पर भी बदलाव लाया जा सकता है।

हमें यह समझना पड़ेगा कि अगर वोट खरीदे जाते हैं तो बिकने वाले वोटर आम जनता ही होती है। जितना खून-पसीना और पैसा हिंसा करने में बहाया जाता है अगर उतनी मेहनत लोगो में जागरूकता फ़ैलाने में लगाईं जाए तो बदलाव जाया जा सकता है। और अगर फिर भी लोगो में बदलाव नहीं आता तो समझ लीजिये लोग बदलना ही नहीं चाहते... फिर इतना खून-खराबा किसके लिए???





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नक्सलवाद या आतंकवाद


बेगुनाहों को क़त्ल करने का किसी को भी कोई हक़ नहीं है बल्कि गुनाहगारों को भी क़त्ल करने का हक़ किसी इंसान को नहीं होना चाहिए। गुनाहगारों को सज़ा हर हाल में कानून के दायरे में ही होनी चाहिए। और अगर किसी गुनाहगार को उसका गुनाह साबित किये बिना ही सज़ा होती है तो मेरी नज़र में वह बेगुनाह ही है।


हिंसा किसी भी हालत में जायज़ नहीं हो सकती है, अगर व्यवस्था गलत है तो व्यवस्था बदलो... अगर सरकार गलत है तो सरकारें बादलों... अगर कानून गलत हैं तो कानून बदलो... मगर बेगुनाहों को क़त्ल करने और क़ातिलों की कैसी भी दलील से समर्थन करने का हक़ किसी को भी नहीं है।

आखिर इतनी विभत्स तरीके से आतंक फ़ैलाने वाले नक्सलियों को क्यों आतंकवादी नहीं कहा जाता? आखिर क्यों नहीं यहाँ भी कश्मीरी आतंकवादियों को खत्म करने के तरीके की तरह लाखों की तादाद में फौजी भेजे जाते?

और सबसे अजीब बात यह है की अन्य आतंकवादी घटनाओं पर खौलने वाला खून आज ठंडा क्यों पड़ा है???






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इश्क-ए-हक़ीकी और उसकी नाराजगी


गुनाहों में मुब्तला रहने का मतलब है कि रब की नाराज़गी का खौफ दिल में नहीं है... और यह इसलिए है क्योंकि उससे इश्क़ का सुरूर अभी दिल पर छाया ही नहीं... महबूब से इश्क़ का अभी बस दावा है, दर-हकीक़त दावे से कोसो दूरी है!

उससे मिलन की चाहते तो हैं, लेकिन अपने फे`ल से लगता ही नहीं कि उसे भी अपने इश्क में मुब्तला करना चाहते हैं! वर्ना उसकी नाराजगी की ता`ब दिल में लाना मुमकिन हो सकता था क्या?


महबूब की नाराज़गी भी कोई दीवाना कभी सहन कर सकता है भला!!!

बल्कि "इश्क़" वोह शय है कि जिससे होता है, आशिक तो उसे सोते-जागते याद करने में ही लुत्फ़-अन्दोज़ होता रहता है। और जिसे मुझसे इश्क हो, फिर अगर मैं उससे मिलन की आस के आनंद में वशीभूत होता हूँ तो क्या वह मुझसे राज़ी नहीं होगा?






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पति-पत्नी: आज की ज़रूरत

हालाँकि सच यही है कि वैवाहिक रिश्ता एक-दूसरे से मुहब्बत और अपने 'हक़' की कुर्बानी पर ही टिका होता है। मगर कडुवी सच्चाई यह है कि अक्सर यह कुर्बानी लड़कियाँ ही ज्यादा देती हैं।


आज के हालातों को देखते हुए माता-पिता के द्वारा लड़कियों को बचपन से ही कम से कम इतना 'ताकतवर' और 'आत्मनिर्भर' बनाए जाने की कोशिशों की सख्त ज़रूरत है कि अगर पति 'ज़्यादती' करे तो वह उसे लात मार सके। कुर्बानियाँ देना तो बहरहाल सिखाया ही जाता है!

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