अक्सर ही कहा जाता है कि धार्मिक नियमों को दिमाग की कसौटी पर कसे बिना आँख मूंद कर विश्वास कर लेना मानसिक गुलामी का प्रतीक है। क्योंकि यह विषय मनुष्य के विश्वास से संबधित है इसलिए इस पर कोई भी राय बनाने से पहले इसको मनोवैज्ञानिक कसौटी पर जाँचना आवश्यक है। मेरा यह मानना है कि हर कार्य के गूढ़ में जाना हर एक व्यक्ति के लिए संभव नहीं होता है। कयोंकि मनुष्य का स्वाभाव ही ऐसा बनाया गया है कि वह हमेशा पहले से बनी धारणा के हिसाब से ही कार्य को करता है और यह बात व्यवहारिक भी है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हे समझने के लिए उसका विशेषज्ञ होना आवश्यक होता है। मनुष्य के मस्तिष्क का कार्य करने का तरीका यह है कि वह हर कार्य क्षेत्र के हिसाब से अपना आदर्श ढूंढता है और उसके लिए अपने दिमाग और तर्जुबे के साथ-साथ अन्य लोगों की राय को भी महत्त्व देता है। अब अगर वह किसी को भी उक्त कार्य क्षेत्र का आदर्श मान लेता है तो फिर उसके हिसाब से काम करता है। हाँ यह अवश्य है कि अगर किसी बात पर उसे संदेह होता है तो वह उसे संबधित व्यक्ति से मालूम कर लेता है।
इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं: हम जब भी अस्वस्थ होते हैं तो डॉक्टर से दवाई लेते हैं, लेकिन कभी भी दवाई के बारे में पूर्ण जानकारी लेना उचित नहीं समझते हैं, क्योंकि ऐसा करना हर एक के लिए आसान नहीं होता है। इसके लिए उक्त विषय के विशेषज्ञ की सलाह ही सबसे उचित मानी जाती है। क्योंकि उसने विषय को समझने के लिए उचित शिक्षा ग्रहण की होती है, जिसे ग्रहण करना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं होता है। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम रोज़मर्रा के जीवन में हज़ारों कार्य करते हैं और हर कार्य के लिए अलग-अलग विशेषज्ञ होता है। इसलिए मनुष्य हमेशा ही उस विषय को परखने की जगह उसके विशेषज्ञ को परखता है। हज़ारों डॉक्टरों में से किसी एक पर ही उसका विश्वास जमता है, जब विश्वास जम जाता है तो उसके कथनुसार ही वह दवाईयां लेता है। हालांकि जब विश्वास डगमगाता है तब दूसरे डॉक्टर के पास जाया जाता है, लेकिन इस स्थिति में भी स्वयं डॉक्टर बनने की कोशिश नहीं की जाती है। यह उदाहरण जीवन की हर परिस्थिति पर पूर्णतः सही उतरता है।
ज़रा सोचिए अगर हर कार्य की पूरी जानकारी लेकर ही कार्य करने का नियम अपना लिया जाए तो क्या होगा? सुबह जब कार्यालय के लिए निकलेंगे तो वाहन को चलाने से पहले उसकी जानकारी लेनी पड़ेगी। मतलब कौन सा पेंच कहां लगा है? ब्रेक कैसे लग रहे हैं? स्टीयरिंग कैसे घूम रहा है? अथवा पहिए कैसे चल रहे है? इत्यादि। क्या हर एक को कार की पूरी इंजिनियरिंग की जानकारी होना आवश्यक है अथवा कार बनाने वाली कंपनी और उसके उत्पाद पर विशेषज्ञों की सलाह को महत्व देकर या अपने तर्जुबे के अनुसार कार खरीद लेना ही अधिक समझदारी का कार्य है? इसी तरह कम्यूटर, मोबाईल जैसे रोज़मर्रा में काम आने वाले उपकरणों को खरीदते अथवा ठीक कराते समय या इसी तरह अन्य कार्यों को करते समय भी उनकी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करना व्यावहारिक ही नहीं है।
ठीक यही बात धार्मिक नियमों पर भी लागू होती है, हर एक नियम का विश्लेषण करना तथा मस्तिष्क की कसौटी पर कसना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है। इस क्षेत्र में भी मनुष्य दूसरें क्षेत्रों की तरह अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके किसी एक विशेषज्ञ को अपने आदर्श के रूप में स्थापित करता है और उसके अनुसार अपने धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण करता है। हाँ अगर किसी कारणवश उक्त आदर्श से विश्वास डगमगाता है, तब फिर से अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके सही आदर्श को चुनना चाहिए। इसी तरह अगर आस्था पर कोई प्रश्न सामने आए तो अवश्य ही उसका उत्तर खोजने की कोशिश करनी चाहिए।
इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं: हम जब भी अस्वस्थ होते हैं तो डॉक्टर से दवाई लेते हैं, लेकिन कभी भी दवाई के बारे में पूर्ण जानकारी लेना उचित नहीं समझते हैं, क्योंकि ऐसा करना हर एक के लिए आसान नहीं होता है। इसके लिए उक्त विषय के विशेषज्ञ की सलाह ही सबसे उचित मानी जाती है। क्योंकि उसने विषय को समझने के लिए उचित शिक्षा ग्रहण की होती है, जिसे ग्रहण करना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं होता है। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम रोज़मर्रा के जीवन में हज़ारों कार्य करते हैं और हर कार्य के लिए अलग-अलग विशेषज्ञ होता है। इसलिए मनुष्य हमेशा ही उस विषय को परखने की जगह उसके विशेषज्ञ को परखता है। हज़ारों डॉक्टरों में से किसी एक पर ही उसका विश्वास जमता है, जब विश्वास जम जाता है तो उसके कथनुसार ही वह दवाईयां लेता है। हालांकि जब विश्वास डगमगाता है तब दूसरे डॉक्टर के पास जाया जाता है, लेकिन इस स्थिति में भी स्वयं डॉक्टर बनने की कोशिश नहीं की जाती है। यह उदाहरण जीवन की हर परिस्थिति पर पूर्णतः सही उतरता है।
ज़रा सोचिए अगर हर कार्य की पूरी जानकारी लेकर ही कार्य करने का नियम अपना लिया जाए तो क्या होगा? सुबह जब कार्यालय के लिए निकलेंगे तो वाहन को चलाने से पहले उसकी जानकारी लेनी पड़ेगी। मतलब कौन सा पेंच कहां लगा है? ब्रेक कैसे लग रहे हैं? स्टीयरिंग कैसे घूम रहा है? अथवा पहिए कैसे चल रहे है? इत्यादि। क्या हर एक को कार की पूरी इंजिनियरिंग की जानकारी होना आवश्यक है अथवा कार बनाने वाली कंपनी और उसके उत्पाद पर विशेषज्ञों की सलाह को महत्व देकर या अपने तर्जुबे के अनुसार कार खरीद लेना ही अधिक समझदारी का कार्य है? इसी तरह कम्यूटर, मोबाईल जैसे रोज़मर्रा में काम आने वाले उपकरणों को खरीदते अथवा ठीक कराते समय या इसी तरह अन्य कार्यों को करते समय भी उनकी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करना व्यावहारिक ही नहीं है।
ठीक यही बात धार्मिक नियमों पर भी लागू होती है, हर एक नियम का विश्लेषण करना तथा मस्तिष्क की कसौटी पर कसना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है। इस क्षेत्र में भी मनुष्य दूसरें क्षेत्रों की तरह अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके किसी एक विशेषज्ञ को अपने आदर्श के रूप में स्थापित करता है और उसके अनुसार अपने धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण करता है। हाँ अगर किसी कारणवश उक्त आदर्श से विश्वास डगमगाता है, तब फिर से अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके सही आदर्श को चुनना चाहिए। इसी तरह अगर आस्था पर कोई प्रश्न सामने आए तो अवश्य ही उसका उत्तर खोजने की कोशिश करनी चाहिए।
- शाहनवाज़ सिद्दीकी
Keywords:
Religion, Rules, धार्मिक नियम
मुझे लगता है कि धर्म हर नियम के परे कि बात है!मतलब वो बात भी नहीं है!
ReplyDeleteपढ़े-सुने के आधार पर ही कह रहा हूँ!जो शब्दों के,सोच के घेरे में आया वो धर्म नहीं,उसका एक इशारा भर रह जाता है!वहा हर मानवीय लोजिक,हर नियम फेल है!
कुंवर जी,
nice
ReplyDeleteठीक कहते हो हमें मस्तिष्क का प्रयोग करके सही आदर्श को चुनना चाहिए। आस्था पर कोई प्रश्न सामने आए तो अवश्य ही उसका उत्तर खोजने की कोशिश करनी चाहिए।
ReplyDeleteकुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हे समझने के लिए उसका विशेषज्ञ होना आवश्यक होता है।
ReplyDeleteतुम लगता है मीठी मीठी बात करने के विशेषज्ञ हो
अच्छे विचार हैं शाह जी। कई बातें सोचने को मजबूत कर रही हैं।
ReplyDelete...पर एक बात और भी है। धर्म के नियम अचानक ही नहीं बने हैं। हजारों-हजार सालों में इनका विकास हुआ है। इसलिए कुछ समय में गलत किस्म के नियमों से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। हाँ, पहल हुई तो इसका नतीजा आने में थोड़ा वक्त जरूर लग सकता है।
सार्थक सोच की अभिव्यक्ति /
ReplyDeletebilkul sahi likha hei. meri swayam ki yehi uljhan thi, darasal kisi ne prashn yehi prashn kiya tha. ab uttar mil gaya hei. Dhanywad.
ReplyDeleteठीक यही बात धार्मिक नियमों पर भी लागू होती है, हर एक नियम का विश्लेषण करना तथा मस्तिष्क की कसौटी पर कसना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है। इस क्षेत्र में भी मनुष्य दूसरें क्षेत्रों की तरह अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके किसी एक विशेषज्ञ को अपने आदर्श के रूप में स्थापित करता है और उसके अनुसार अपने धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण करता है।
ReplyDeleteसही कहा आपने ।
ReplyDeleteसही कहा आपने शाहनवाज़ भाई हमे नियमो को अपनी अक्ल और साइंस पर तुलना करनी ही चाहिए ।अंधविश्वास हमेशा नुकसान ही पहुँचाता है नियम चाहे जो हो वो फ़ायदे के लिए बनाए गए है। हमे सोचना चाहिए हमारा फ़ायदा कौन ज्यादा अच्छा सोच सकता है इंसान या ईश्वर?
ReplyDeleteनफ़रत में डूबकर आदमी ग़लत काम कर तो देता है लेकिन जब उसपर सत्य प्रकट होता है तो फिर उसे अहसास होता है कि जिसे वह धर्म की सेवा समझ रहा था , वास्तव में वह तो अधर्म था ।
ReplyDeleteवेद
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः
मैं तुम सबको समान मन्त्र से अभिमन्त्रित करता हूं ।
ऋग्वेद , 10-191-3
कुरआन
कु़ल या अहलल किताबि तआलौ इला कलिमतिन सवाइम्-बयनना व बयनकुम
तुम कहो कि हे पूर्व ग्रन्थ वालों ! हमारे और तुम्हारे बीच जो समान मन्त्र हैं , उसकी ओर आओ ।
पवित्र कुरआन , 3-64
- शांति पैग़ाम , पृष्ठ 2 , अनुवादकगण ः स्वर्गीय आचार्य विष्णुदेव पंडित , अहमदाबाद , आचार्य डा. राजेन्द प्रसाद मिश्र , राजस्थान , सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ , रामपुर
एक ब्रह्मवाक्य भी जीवन को दिशा देने और सच्ची मंज़िल तक पहुंचाने के लिए काफ़ी है । जो भी आदमी धर्म में विश्वास रखता है , वह यक़ीनी तौर पर ईश्वर पर भी विश्वास रखता है । वह किसी न किसी ईश्वरीय व्यवस्था में भी विश्वास रखता है । ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास रखने के बावजूद उसे भुलाकर जीवन गुज़ारने को आस्तिकता नहीं कहा जा सकता है ।
ईश्वर पूर्ण समर्पण चाहता है । कौन व्यक्ति उसके प्रति किस दर्जे समर्पित है , यह तय होगा उसके ‘कर्म‘ से , कि उसका कर्म ईश्वरीय व्यवस्था के कितना अनुकूल है ?
इस धरती और आकाश का और सारी चीज़ों का मालिक वही पालनहार है । हम उसी के राज्य के निवासी हैं । सच्चा राजा वही है । सारी प्रकृति उसी के अधीन है और उसके नियमों का पालन करती है । मनुष्य को भी अपने विवेक का सही इस्तेमाल करना चाहिये और उस सर्वशक्तिमान के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ताकि हम उसके दण्डनीय न हों ।
वास्तव में तो ईश्वर एक ही है और उसका धर्म भी , लेकिन अलग अलग काल में अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित ईशवाणी के नवीन और प्राचीन संस्करणों में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को चाहिये कि अपने और सबके कल्याण के लिए उन बातोंं आचरण में लाने पर बल दिया जाए जो समान हैं । ईशवाणी हमारे कल्याण के लिए अवतरित की गई है , यदि इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन और व्यवहार किया जाए तो यह नफ़रत और तबाही के हरेक कारण को मिटाने में सक्षम है ।
आज की पोस्ट भाई अमित की इच्छा का आदर और उनसे किये गये अपने वादे को पूरा करने के उद्देश्य से लिखी गई है । उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं वेद और कुरआन में समानता पर लेख लिखूं । मैंने अपना वादा पूरा किया । उम्मीद है कि लेख उन्हें और सभी प्रबुद्ध पाठकों को पसन्द आएगा ।
http://blogvani.com/blogs/blog/15882
अच्छा विशलेशण
ReplyDeleteकोई नियम क्यों है इसपर गौर करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन अगर समझ में न आये तो उस नियम को बुरा भला कहना भी अज्ञानता है.
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने जीशान जी. सरे फसाद की जड़ यही है कि हम बिना समझे ही समझते हैं कि हमने सब समझ लिया. और अपनी समझ के हिसाब से भला-बुरा कहने लगते हैं.
ReplyDeleteकुवर जी,
ReplyDeleteधर्म की जो व्याख्या आपने पेश की दर-असल वह धर्म की नहीं अपितु ईश्वर की है. मेरे विचार से धर्म तो ईश्वर का विधान है, इंसान के लिए जीवन को जीने का तरीका है. यह मुश्किल हो ही नहीं सकता है.
शाहनवाज भाई आपने मेरी टिप्पणी को इतनी इज्ज़त दी इसके लिए मै आपका शुक्रगुजार हूँ!
ReplyDeleteअसल में मै अभी इस दिशा में कोई अनुभव प्राप्त नहीं कर पाया हूँ!पर जिन्होंने स्वयं अनुभव प्राप्त किये है उनके मत निराले और सामान्य से विरोधाभासी से लगते है!ये विषय ही ऐसा है!लेकिन मनुष्य की प्रकृति वही है "बिना भुगते नहीं जानते!"
वैसे सही भी है,जो अनुभव हो वही ज्ञान माना जाए!लेकिन जिनको ज्ञान हुआ वो अधिकतर तो मौन हो गए!और जो बोले उन्हें अन्त तक मलाल रहा कि वो जो असल में बताना चाहते थे बता नहीं पाए!कुछ इस लिए भी इस विषय में स्पष्टता नहीं है कि हम धर्म और इश्वर में किता और कैसे फर्क करे!क्षमा करना भाई साहब मै शायद ज्यादा बोल गया अपने स्तर के हिसाब से!
कुंवर जी,
Aap hamesha hi bahut badhiya lekhte hai, Yeh lekh bhi bahut achha likha hai. Ek aur badhiya lekh hai:-
ReplyDeleteईशवाणी हमारे कल्याण के लिए अवतरित की गई है , यदि इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन और व्यवहार किया जाए तो यह नफ़रत और तबाही के हरेक कारण को मिटाने में सक्षम है ।
वेद:
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः
मैं तुम सबको समान मन्त्र से अभिमन्त्रित करता हूं ।
ऋग्वेद , 10-191-3
कुरआन:
तुम कहो कि हे पूर्व ग्रन्थ वालों ! हमारे और तुम्हारे बीच जो समान मन्त्र हैं , उसकी ओर आओ ।
पवित्र कुरआन , 3-64 - शांति पैग़ाम , पृष्ठ 2, अनुवादकगण : स्वर्गीय आचार्य विष्णुदेव पंडित , अहमदाबाद , आचार्य डा. राजेन्द प्रसाद मिश्र , राजस्थान , सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ , रामपुर
एक ब्रह्मवाक्य भी जीवन को दिशा देने और सच्ची मंज़िल तक पहुंचाने के लिए काफ़ी है ।
जो भी आदमी धर्म में विश्वास रखता है , वह यक़ीनी तौर पर ईश्वर पर भी विश्वास रखता है । वह किसी न किसी ईश्वरीय व्यवस्था में भी विश्वास रखता है । ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास रखने के बावजूद उसे भुलाकर जीवन गुज़ारने को आस्तिकता नहीं कहा जा सकता है । ईश्वर पूर्ण समर्पण चाहता है । कौन व्यक्ति उसके प्रति किस दर्जे समर्पित है , यह तय होगा उसके ‘कर्म‘ से , कि उसका कर्म ईश्वरीय व्यवस्था के कितना अनुकूल है ?
इस धरती और आकाश का और सारी चीज़ों का मालिक वही पालनहार है ।
हम उसी के राज्य के निवासी हैं । सच्चा राजा वही है । सारी प्रकृति उसी के अधीन है और उसके नियमों का पालन करती है । मनुष्य को भी अपने विवेक का सही इस्तेमाल करना चाहिये और उस सर्वशक्तिमान के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ताकि हम उसके दण्डनीय न हों । वास्तव में तो ईश्वर एक ही है और उसका धर्म भी , लेकिन अलग अलग काल में अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित ईशवाणी के नवीन और प्राचीन संस्करणों में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को चाहिये कि अपने और सबके कल्याण के लिए उन बातों आचरण में लाने पर बल दिया जाए जो समान हैं । ईशवाणी हमारे कल्याण के लिए अवतरित की गई है , यदि इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन और व्यवहार किया जाए तो यह नफ़रत और तबाही के हरेक कारण को मिटाने में सक्षम है ।
आज की पोस्ट भाई अमित की इच्छा का आदर और उनसे किये गये अपने वादे को पूरा करने के उद्देश्य से लिखी गई है । उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं वेद और कुरआन में समानता पर लेख लिखूं । मैंने अपना वादा पूरा किया । उम्मीद है कि लेख उन्हें और सभी प्रबुद्ध पाठकों को पसन्द आएगा
http://vedquran.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
कुंवर जी,
ReplyDeleteमेरे विचार से ईश्वर को जानना सबसे आसान कार्य है. अगर मुश्किल होता तो हर कोई उस परम सत्य पर आरोप लगा देता कि उसने तो जानने की कोशिश की परन्तु, इतना मुश्किल था कि जान ही नहीं पाया. वैसे एक बात यह भी है, कि यह इसनान की ताकत ही नहीं है कि वह उस परम सत्य को पहचान ले. यह तो सिर्फ उसकी कृपा से ही संभव हो सकता है. और उसकी कृपा तो हर उस मनुष्य पर होनी ही चाहिए जो उसे पाना चाहता है. इसलिए असल है उसको पाने की इच्छा करना.
MLA भाई,
ReplyDeleteअगर आपको अनवर भाई का उपरोक्त लेख इतना पसंद आया है कि आप दूसरों को बताना चाहते हैं, तब भी इसे पूरा का पूरा यहाँ लिखने की क्या आवश्यकता थी? थोडा सा लिख कर निचे लिंक दे देते. जिसे पसंद आता वह ब्लॉग पर जाकर पढ़ लेता. अब इतने बड़े लेख के कमेंट्स बॉक्स में छपने से और लोगो को सरे कमेंट्स पढने में परेशानी भी हो सकती है. कृपया ध्यान रखें.
वैसे स्वयं अनवर जी भी आपसे पहले इस लेख को यहाँ कमेंट्स में लिख चुके हैं, शायद आपने देखा ही नहीं???
ReplyDeleteआज दिनांक 20 मई 2010 के दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट विश्वास की कसौटी शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।
ReplyDeleteaapki yah post akhbaar men chhap gayee hai. badhaaee
ReplyDeleteदेखो, सोंचो समझो फिर करो
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