यही वजह ही कि मुझे ज़्यादा मार्क्स लाने वाले स्टूडेंट्स के साथ ख़ुशी से ज़्यादा सहानुभूति होने लगी है।
स्टूडेंट्स पढ़ाई में मेहनत सीखने की जगह ज़्यादा मार्क्स लाने के लिये करते हैं, चैप्टर्स को समझने और रिसर्च करने की जगह रट्टा मारा जाता है, जिससे कि बस फ़ौरी तौर पर अच्छे से अच्छे मार्क्स लाकर उन्हें उच्च शिक्षा के लिए एडमिशन मिल सके।
यह कंपीटिशन बच्चों के अंदर ऐसा प्रेशर भरता है कि वो अंदर से कमज़ोर होते चले जाते हैं। अक्सर बच्चे इस प्रेशर को सहन नहीं कर पाते हैं और बीच में ही जीवन से हार जाते हैं और बाक़ी स्टूडेंट्स उस मानसिक कमज़ोरी को ज़िंदगी भर झेलते रहते हैं।
माध्यम और गरीब वर्ग के पैरेंट्स के लिए तो अपने बच्चों को कमज़ोर आर्थिक स्थिति से बाहर निकलने का यही रास्ता बचता है, क्योंकि वो अपने बच्चों का एडमिशन प्राइवेट संस्थाओं मे करा ही नहीं सकते हैं।
हमारे देश में सरकारें अच्छे सरकारी शिक्षण संस्थान इसलिए नहीं बना रही हैं कि अगर माध्यम और गरीब वर्ग के बच्चे भी पढ़ लिख गये तो फिर अमीर वर्ग के बच्चों का क्या होगा? क्योंकि फिर उच्च स्तरीय नौकरियों पर बड़ी तादाद में पास हुए गरीब तबके के बच्चे अपना दावा पेश करेंगे।
हर साल 20 लाख से ज़्यादा बच्चे NEET की परीक्षा में बैठते हैं और मात्र 50 हज़ार के आसपास ही MBBS की सीटें सरकारी संस्थानों में हैं। यही हाल JEE जैसी दूसरी परीक्षाओं का भी है।
पर सब राजनैतिक पार्टियाँ मस्त हैं, क्योंकि उन्हें वोट धार्मिक नफ़रत की राजनीति और इस राजनीति का विरोध करने से मिल ही रहे हैं। वोट डालने वालों को अपने बच्चों के मुस्तक़बिल की कोई परवाह ही नहीं है तो किसी और को भी क्यों ही हो?
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