सनसनी पैदा करना ही एकमात्र लक्ष्य बन कर रह गया है इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया का
हमारे देश का इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया टीआरपी के फेर में पड़ कर गै़रज़िम्मेदार होता जा रहा है, जिसका ताज़ा उदाहरण हाल में संपन हुआ विश्व कप आयोजन है। एक ओर फाइनल मैच जीतने से पहले जहां पूरा मीडिया भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को पूरी तरह अक्षम सिद्ध करने पर तुला हुआ था, उनको खलनायक के तरह प्रायोजित किया जा रहा था। पियूष चावला को खिलाने जैसे मुद्दों पर ऐसे शब्दबाण चलाए जा रहे थे, जैसे न्यूज़ एंकर स्वयं भारतीय कप्तान से अधिक चतुर खिलाड़ी हो। हालांकि पियूष चावला की प्रतिभा में किसी को शक नहीं है, लेकिन हर खिलाड़ी हर समय नहीं चलता है और केवल इसी डर से किसी प्रतिभावान खिलाड़ी को बिना मौका दिए बाहर नहीं बैठाया जा सकता है। फिर किसी खिलाड़ी को मैच में खिलाना अथवा ना खिलाना उस दिन की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। वहीं दूसरी ओर भारतीय टीम के विश्वकप जीतने पर यही मीडिया धोनी के द्वारा उठाए गए साहसिक कदमों का गुणगान करते नहीं थक रहा है। देखने से साफ पता चलता है कि लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ माना जाने वाली पत्रकारिता का यह हिस्सा आजकल केवल ब्रेकिंग न्यूज़ में विश्वास रखता है। कुकरमुत्तों की तरह उग गए चैनल्स की भीड़ सनसनी पैदा करने की होड़ में एक दूसरे से आगे निकल जाना चाहती है। वहीं उपभोक्तावाद की दौड़ में शब्दों और विषय के चयन में मर्यादाओं को ताक पर रखा जा रहा है।
भारत-पाकिस्तान के मैच को युद्ध की तरह दर्शाकर भावनाओं का खेल खेला जा रहा था, ढूंढ-ढूंढकर खिलाड़ियों के बीच हुई तकरार के विडिओ को बार-बार दिखाया जा रहा था। यहां तक कि स्टूडियों में बैठे पूर्व खिलाड़ियों से उगलवाया जा रहा था कि मैदान में कैसे-कैसे अपशब्दों का प्रयोग होता है। और यह सब केवल न्यूज़ चैनल्स की टी.आर.पी बढाने के उद्देश्य से क्या जा रहा था? कई चैनल्स सौ घंटे के एपिसोड चला कर यह दर्शाना चाहते थे कि उनके लिए देश में और कोई खबर अब बची ही नहीं है? सरकार पर चलने वाले भ्रष्टाचार के सभी तीरों की धार कुंद हो गई थी या फिर देश में बड़ी से बड़ी घटना-दुर्घटना चैनल्स को बड़ी नहीं लग रही थी? भारत-पाक मैच के दरमियान युद्ध जैसे हालात पैदा करके लोगों को बार-बार टी.वी. चैनल्स खोलने के लिए ललचाना क्या पत्रकारिता कहा जा सकता है?
भारत ही नहीं विश्व के महान खिलाड़ी माने जाने वाले सचिन तेंडुलकर को क्रिकेट का भगवान बताकर हर मैच से पहले शतकों के शतक की भविष्यवाणी की जा रही थी। कैसी बचकानी सोच है? खिलाड़ी केवल खिलाड़ी होता है, किसी खिलाड़ी को क्रिकेट के भगवान के रूप में महिमा मंडित करना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? क्या जवाब होगा अगर इनसे मालूम किया जाए कि सचिन केवल एक खिलाड़ी ना होकर क्रिकेट के भगवान हैं तो आखिर उनका शतकों का शतक क्यों नहीं लगा? इससे यह भी पता चलता है कि इन चैनल्स की अपनी कोई सोच है ही नहीं, मुंह से शब्द निकलते हैं तो केवल बाज़ार का रुख देखकर।
मीडिया के इस अंग में से अधिकतर को अन्ना हजारे जैसी किसी शख्सियत अथवा भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे से मतलब नहीं है, इन्हें तो केवल अपनी दुकान चलाने के लिए रोज़ कोई नायक अथवा खलनायक चाहिए। इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया के बारे में मशहूर है कि यह जिसे चाहे अर्श पर बैठा दे और जिसे चाहे फर्श पर ले आए। शायद इसी इमेज का फायदा उठाया जा रहा है और इसी कारण भरष्टाचार के आरोपों की उँगलियाँ इस ओर भी उठ रही हैं।
क्या पत्रकारिता के इस हिस्से को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ जैसी श्रेंणी में रखा जा सकता है?
क्या पत्रकारिता के इस हिस्से को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ जैसी श्रेंणी में रखा जा सकता है?
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आलेख के मर्म से पूर्णतः सहमत!
ReplyDeleteसनसनी बस सनसनी।
ReplyDeleteसहमत!
ReplyDeleteक्रिकेट से खुन्नस रखने के पीछे मेरे निजी अनुभव हैं जो कि अच्छे नहीं हैं।
ReplyDeletehttp://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/04/world-cup-2011.html
सहमत! सहमत! सहमत!
ReplyDeleteसही कह रहे हो!!
ReplyDeleteएकमात्र उद्देश्य सनसनी...
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा शाहनवाज़ भाई ....समझ में नहीं आता कि आखिर हर चैनल की एक ही जैसी मजबूरी , एक ही जैसा बाज़ार कैसे हो सकता है कोई तो भीड में अलग नज़र आए । अफ़सोस है सिर्फ़ अफ़सोस
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा। आजकल इनका धन्धा भी खूब चल रहा है। किसी एक बात के पीछे पद जाते हैं तो कितने दिन वही राग अलापते रहते हैं आखिर 24 घन्टे चैनल चालू रखने के लिये मुद्दा तो चाहिये ही। सनसनी के इलावा और मनोरंजक क्या हो सकता है?आशीर्वाद।
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ReplyDeleteSachmuch is baar to in logon ne sadd hi kar dee. inpar bhi lagaam lagaayi jani zaruri.
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क्या ब्लॉगिंग को अभी भी प्रोत्साहन की आवश्यकता है?
सब के सब सब विषयों में महारत रखते हैं.धोनी की जगह ये कप्तान होते तो न जाने कितने कप ले आते, कितने कीर्तिमान स्थापित कर देते.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बिलकुल सही..
ReplyDeleteवर्ल्ड कप के जीत के दो दिन बाद शायद किसी चैनल में एक प्रोग्राम आ रहा था जिसका शीर्षक था "अब दोस्त बनेंगे दुश्मन.."
मुझे तो वो पढ़ के हंसी आ गयी, और चैनल बदल दिया.. :)
...सटीक समीक्षा।
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