इतने नारों और इतनी कवायदों के बाद भी कुछ नहीं बदला है... शर्म का मुकाम तो यह है कि हम पुरुष आज भी सड़कों पर लड़कियों को घूरते, उनपर फिकरे कसते नज़र आ रहे हैं... बलात्कारी आज भी टारगेट तलाश रहे हैं और उन्हें रोक सकने वाले आज भी मुंह को सिल कर और हाथों को बाँध कर अपने-अपनी राह पकड़ रहे हैं...
कुछ भी तो नहीं बदला है
पता नहीं उनका क्या मकसद था?
और विश्वास करिये हम लोग हिंसक नहीं थे, क्योंकि हम तो खुद हिंसा के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे.... लेकिन यह भी सच है कि हम से कहीं ज़्यादा संख्या में लोग वहां हिंसक प्रदर्शन कर रहे थे, पता नहीं उनके उस प्रदर्शन का क्या मकसद था?
'पुरुष' होने का दंभ
अगर हम बचपन से बेटों को विशेष होने और लड़कियों को कमतर होने का अहसास कराना बंद कर दें तो स्थिति काफी हद तक सुधर सकती है। क्योंकि इसी अहसास के साथ जब वह बाहर निकलते हैं तो लड़कियों के साथ अभद्र व्यवहार करने में मर्दानगी समझते हैं। उनकी नज़रों में लड़कियां 'वस्तु' भर होती हैं।
यह सब इसलिए है क्योंकि बचपन से बेटों और बेटियों में फर्क किया जाता है। समाज बेटियों को 'सलीकेदार' और बेटों को 'दबंग' बनते देखना चाहता हैं। बेटियां घर का काम करेंगी, बेटे बाहर का काम करेंगे... बचपन से सिखाया जाता है कि खाना बनाना केवल बेटियों को सीखना चाहिए। सारे संस्कार केवल बेटियों को ही सिखाये जाते हैं, कैसे चलना है, कैसे बैठना है, कैसे बोलना है, इत्यादि। क्या हम यह सोचते हैं कि जिन्हें हमने शुरू से ही निरंकुश बनाया है, वह बड़े होकर शिष्टाचार फैलाएंगे? आज समय इस खामखयाली से बाहर आने का है।
केवल सख्त कानून, जल्द सज़ा और पुलिस की मुस्तैदी भर से बलात्कार जैसे घिनौने अपराधों को नहीं रोका जा सकता है। हर बलात्कारी को पता है कि वह एक ना एक दिन पकड़ा ही जाएगा, उसके बावजूद बलात्कार की घटनाएं इस कदर तेज़ी से बढ़ रही हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड, स्वीडन और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में पुलिस भी मुस्तैद है, कानून भी सख्त है और फैसले भी जल्दी होते है, इसके बावजूद बलात्कार के सबसे ज़्यादा मामले इन्ही देशों में होते हैं। बल्कि हिन्दुस्तान से कई गुना ज़यादा होते हैं।
आज ज़रूरत बड़े-बड़े नारों या बड़े-बड़े वादों की नहीं है। बल्कि असल ज़रूरत चल रही कवायदों के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर जागरूकता पैदा करने की है, महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने की है।
अगर हम बदलाव लाना चाहते है तो शुरुआत हमें अपने से और अपनों से ही करनी होगी। वर्ना कहने-सुनने के लिए तो कितनी ही बातें हैं... यूँ ही कहते-सुनते रहेंगे और होगा कुछ भी नहीं!
आई आई "एफ डी आई"
धर्म के नाम पर अधर्म कब तक?
धर्म का दिखावा
मुहर्रम के नाम पर कल रात साड़े ग्याराह बजे (11.30 p.m.) तक लोग हमारे घर के सामने ढोल-तमाशों के साथ हुडदंग मचाते रहे, और उसके बाद आगे निकल गए और लोगो को परेशान करने के लिए। उनके चेहरों की मस्ती बता रही थी कि उन्हें शहीद-ए-करबला हजरत इमाम हुसैन (रज़ी.) की शहादत के वाकिये से कोई वास्ता नहीं था। उनका वास्ता था, तो केवल और केवल अपने हुडदंग और मस्ती से, जिसे धर्म के नाम पर ज़बरदस्ती बाकी लोगो पर थोपा जा रहा था।
अजीब बात है कि आम मुसलमानों को यह दिखाई नहीं देता कि यह लोग शहीद-ए-करबला हजरत इमाम हुसैन को अपनी अश्रुपूरित श्रद्घांजलि देने की जगह उनके नाम पर मस्ती और हुडदंग मचाते है।
और ऐसा किसी खास धर्म या समुदाय के लोग ही नहीं करते, बल्कि हर धर्म में ऐसे लोग मौजूद हैं।
सुबह सही से होने भी नहीं पाई थी, 5 बजे प्रभातफेरी के नाम पर लाउडस्पीकर के साथ शोर मचाना शुरू कर दिया गया। पूजा-अर्चना / इबादत का ताल्लुक स्वयं से होता है, मगर अपनी इबादत में ज़बरदस्ती दूसरों को शामिल क्यों किया जता है?
उफ़ यह धर्म के नाम पर अधर्म कब तक थोपा जाएगा? दिल्ली जैसे शहर में तो अक्सर लोग रात की ड्यूटी करके आते हैं, लेकिन इन लोगो को कोई फर्क नहीं पड़ता है, चाहे किसी की नींद खराब हो या फिर किसी की पढ़ाई को नुक्सान हो।
परेशानी का सबब तो यह है कि इस दिखावे नामक अधर्म को धर्म के नाम पर परोसा जा रहा है, हमारे देश में इन तथाकथित धार्मिक लोगो पर कानून का कोई डर नहीं होता। और सरकार से तो कोई उम्मीद करना ही बेमानी है।
पुरुष प्रधान समाज हैं महिलाओं के दोयम दर्जे का ज़िम्मेदार
हमारा समाज हमेशा से पुरुष प्रधान रहा है और इसी पुरुष प्रधान समाज ने धर्मों को अपनी सहूलत के एतबार से इस्तेमाल किया, जहाँ दिल किया वहीँ कृतिम डर दिखा कर नियमों को ऐसे तब्दील कर दिया कि पता भी नहीं चले कि असल क्या है और नक़ल क्या। यहाँ तक कि बड़े से बड़ा दीनदार (धार्मिक व्यक्ति) भी यह सब इसलिए सहता है कि यह सब नियम पुरुष प्रधान ठेकेदारों ने धर्म की आड़ लेकर बनाएं हैं। धर्म के नाम पर कट्टरता दिखाने वाले भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि महोलाओं का शोषण करने वाले नियम किसी धर्म का हिस्सा नहीं बल्कि पुरुष प्रधान सोच के ठेकेदारों की अपने दिमाग की उपज है।
शर्तों पर दोस्ती
मैं दोस्ती इस शर्त पर नहीं करता कि उनकी हाँ में हाँ मिलाऊं और ना ही इस उम्मीद पर कि मेरे दोस्त मेरी हाँ में हाँ मिलाएं।
हर किसी की अपनी शख्सियत, अपनी सोच और अपनी अक्ल है। ऐसे में यह बेमानी शर्त विचारों के साथ ज़बरदस्ती सी लगती है!
मीडिया का फंडा 'एक और एक ग्यारह'
जबसे इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया ने देश में पैर पसारे हैं, तब से खबर को सनसनी बनाने और केवल सनसनी को ही खबर के रूप में दिखाने का कल्चर भी पैर पसार गया है. किसी भी खबर को सनसनी बनाने के चक्कर में मीडिया 'एक और एक दो' को 'एक और एक ग्यारह' और कई बार 'एक सौ ग्यारह' बनाने में तुला रहता है, जिसके कारण बात का बतंगड बनते देर नहीं लगती.
जिसके चलते मीडिया की रिपोर्ट पर आँख मूंद कर विश्वास करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता जा रहा है...
मेरी बिटिया 'ऐना' का जन्म दिन
आज मेरी प्यारी सी बेटी 'ऐना' का जन्म दिन है, माशाल्लाह आज वोह पूरे सात वर्ष की हो गयी है.
और हाँ उसने एक छोटी सी कविता लिखी है, जिसे मैंने उसी समय मोबाइल पर टाइप कर लिया था। आज उसने उस कविता को अपने ब्लॉग पर भी शेयर किया है. आप उसके ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं.
आप कैसे नेता हैं?
एक नेता के बेटे ने नेता जी से मालूम किया -
मलाला युसूफजई प्रकरण - क्या बदल पाएगी लोगो की सोच?
बिना तथ्य के आरोप लगाने से किसको फायदा?
कानून मंत्री की प्रेस कांफ्रेंस के बाद मुझे इस बात में कोई संदेह नज़र नहीं आता है कि उनके ट्रस्ट ने विकलांगों को सामान बांटने के लिए कैम्प लगाए. हालाँकि हस्ताक्षर असली हैं या नकली यह साबित होना बाकी है. इसलिए मैं अपने फेसबुक स्टेटस को वापिस लेता हूँ जिसमें मैंने कहा था कि -
पुरुषों में 'विशेष' होने का अहम्
यह सब इसलिए होता है कि हम बचपन से बेटों और बेटियों में फर्क करते हैं.... बेटियां घर का काम करेंगी, बेटे बाहर का काम करेंगे... बचपन से सिखाया जाता है कि खाना बनाना केवल बेटियों को सीखना चाहिए... सारे संस्कार केवल बेटियों को ही सिखाये जाते हैं, कैसे चलना है, कैसे बैठना है, कैसे बोलना है, इत्यादि। जिन्हें शुरू से ही निरंकुश बनाया गया है, वह बड़े होकर निरंकुशता ही फैलाएंगे.
चंद्रमौलेश्वर जी - उनका संदेसा उनके जाने के बाद आया!
आँखों में आंसू भर आये - उनकी शुभकामनाएँ मुझे उनके इस दुनिया से चले जाने के बाद मिली...
आपकी टिप्पणियाँ आपकी याद दिलाती रहेंगी चंद्रमौलेश्वर जी...
केजरीवाल के आरोप और कांग्रेस की बेचेनी
अरविन्द केजरीवाल और बदलाव की उम्मीद
अगर वह यह मानते हैं कि विदेशी कम्पनियाँ देश में नहीं आनी चाहिए तो फिर वह कैसे भारतीय कंपनियों को इस बात पर अमादा करेंगे की वह अपने कर्मचारियों को उनकी योग्यता अनुसार अधिक से अधिक वेतन देकर अपने लाभ को कम करें। अगर वह बदलाव की आशा जगाते हैं तो उन्हें इसका हल निकालना ही होगा कि किस तरह आज भी लाला कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को निम्नतम वेतन पर रखकर उनकी मज़बूरी का फायदा उठाती है और इसी कारण कितनी ही भारतीय प्रतिभाएं देश से पलायन पर मजबूर हो जाती हैं।
समझदारी केवल यह कह लेने भर में नहीं है कि "डीज़ल / रसोई गैस पर सब्सिडी वापिस ली जानी चाहिए" बल्कि इसमें है कि वह समझाएं कि आखिर डीज़ल / रसोई गैस पर सब्सिडी क्यों हटाई जानी चाहिए? या सब्सिडी कम ना करने से होने वाले नुक्सान के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। किस तरह आम आदमी के खून-पसीने की कमाई को अमीर ट्रांसपोर्टर्स और महंगी डीज़ल कार अथवा बिजली जेनरेटर्स के मालकों को फायदा उठाने से रोका जाएगा।
उन्होंने कहा कि दिल्ली में बिजली महंगी करने में सरकार और बिजली कंपनियों में सांठ-गाँठ है। यहाँ भी उन्हें सबूत अथवा तथ्य पेश करने चाहिए, तभी देश को उनमें और दूसरे नेताओं में फर्क पता चलेगा।
ग़ज़ल: नयन उनके जबसे हमें भा गए हैं
- शाहनवाज़ 'साहिल'
टीम अन्ना का राजनीती में स्वागत है
पारिवारिक देह व्यापार का घृणित जाल
पारिवारिक देह व्यापार का घृणित जाल
मुनव्वर राना साहब से ख़ुसूसी मुलाक़ात
मुनव्वर राना साहब के साथ खाकसार |
धौखा है हज सब्सिडी
हमारे देश की सरकार इस यात्रा पर किराए में सब्सिडी देने की बात करती है, जो कि पूरी तरह धौखा है। हज के लिए जेद्दाह जाने का जो किराया आम दिनों में 16-17 हज़ार होता है, इंडियन एयर लाइन्स के द्वारा सरकार वही किराया हज के दिनों के करीब आते-आते कई गुना बढ़ा देती है। पिछले वर्ष यह किराया तकरीबन 52 हज़ार था, इस साल यह करीब 55 हज़ार तक पहुँचने की उम्मीद है।
आम दिनों में पवित्र शहर मक्का में "उमरा" के लिए 20 दिन की यात्रा का खर्च तकरीबन 33-35 हज़ार रूपये ही आता है लेकिन हज के दिनों में यही खर्च बढ़कर दुगने से भी अधिक हो जाता है। हज यात्रा आम तौर पर 40 दिन तक चलती है और इसमें खर्च सवा लाख रूपये के आस-पास होता है। ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि हज पर जाने के लिए केवल एयर इंडिया तथा सउदी एयरवेज़ को ही इजाज़त है। सरकार सउदी अरब सरकार के साथ मिलकर यह गोरखधंधा चला रही है, इसी मोनोपोली का फायदा उठाकर हर साल किराया इतना बढ़ा दिया जाता है जिससे कि मुसलमानों को सब्सिडी के नाम पर ठगा जा सके।
यह खुली लूट नहीं है तो और क्या है? अगर डेढ़-दो लाख लोग एक साथ मिलकर किसी भी एयर लाइन्स से टिकट लें तो क्या वहां किराए में छूट नहीं मिलेगी? लेकिन सरकार द्वारा नियुक्त हज कमिटी इस मसले पर चुप है, आखिर क्यों? उन्हें साफ़ करना चाहिए कि वह हाजियों की नुमाइंदगी करती हैं या सरकार की।
इस कदम से सरकार की नियत का अंदाजा लग जाता है, कि वह केवल मुसलमानों की मदद करने का ढोंग करती है, अगर सरकार वाकई मुसलमानों का की मदद करना चाहती तो इस गलत रास्ते को क्यों चुनती है?
जिस छूट पर हज यात्रियों का हक़ है, सरकार उसी हक को सब्सिडी नामक भीख के तौर पर देती है। कम से कम हज यात्रियों का पैसा ही उन्हें छूट नामक झूट के नाम से देती तो भी चलता लेकिन सब्सिडी के नाम से तो यह सरकार की खुली लूट है।
आज ज़रूरत है कि यह आवाज़ उठाई जाए कि या तो हमारा हक दो नहीं तो कम से कम इस सब्सिडी नाम की भीख को समाप्त करो। वैसे भी हज जैसी पवित्र यात्रा के किराए पर सरकार की (झूठी) मदद जायज़ ही नहीं है, हज के लिए जाने वाले जहाँ डेढ़-दो लाख रूपये प्रति व्यक्ति खर्च करते हैं, क्या वह थोडा और पैसा खर्च नहीं कर सकते हैं?
ग़ज़ल: "अँधेरी रात है खुद का भी साया साथ नहीं"
अँधेरी रात है खुद का भी साया साथ नहीं
- शाहनवाज़ सिद्दीक़ी 'साहिल'
क्या 'हलाला' शरिया कानून का हिस्सा है?
क्या 'हलाला' शरिया कानून का हिस्सा है?
http://www.islamawareness.net/Talaq/talaq_fatwa0008.html
इस विषय के सन्दर्भ को समझने तथा टिप्पणियों के माध्यम से विचारों के आदान-प्रदान के लिए मेरी पिछली पोस्ट पढ़ें.
तलाक़ पर लेख और मेरी प्रतिक्रिया
गायब होती टिप्पणियों का राज़ - शाहनवाज
ब्लॉग बुलेटिन: गायब होती टिप्पणियों का राज़ - शाहनवाज़
मुस्लिम समाज में तलाक़ का प्रावधान
इसके अलावा 1 तलाक़ देने के बाद तीन महीने तक भी इंतज़ार किया जा सकता है और तीन महीने पूरे होने से पहले साथ रहने या नहीं रहने का फैसला किया जाता है, अगर साथ नहीं रहना है तो तलाक़ हो जाती है। इस हालत में अगर कुछ दिनों या महीनों के बाद दोनों को अगर लगता है कि तलाक़ देकर गलती की है तो दुबारा निकाह किया जा सकता है, पर इस तरीके से भी अलग-अलग बार तीन बार तलाक़ देने के बाद फिर से शादी का हक़ ख़त्म हो जाता है।
[इस लेख की अगली कड़ी "हलाला" के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें]
क्या 'हलाला' शरिया कानून का हिस्सा है?
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एक शाम ढली, फिर सुबह नई
एक शाम ढली, फिर सुबह नई,
उम्मीद नई, शुरुआत नई
वोह चमकीला सा ख्वाब नया
जज़्बात नए, हर आस नई
हर आंसू गिर कर सूख गया,
अब खुशियों की हो बात नई
यूँ मद्धम-मद्धम चलती सी
यह खुशियों की बारात नई
फिर जीवन खुलकर झूम उठा,
लम्हा-लम्हा सौगात नई
अब रब की पनाह में है 'साहिल'
हर मौज नई, सादात* नई
- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'
*सादात = बुज़ुर्गी
ब्लॉग को वेबसाइट में कैसे बदलें? - ब्लॉग बुलेटिन
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आज के दौर में जानकारी ही बचाव है - ब्लॉग बुलेटिन
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गरीबी में लाचार बचपन
और कब चल दिये
अनंत यात्रा पर
याद भी नहीं
क्या है ज़िन्दगी
शायद हसरतो का
नाम है,
या फिर उम्मीदों का
हसरतें
कब किसकी पूरी हुई हैं?
और
उम्मीदें तो होती ही
बेवफा हैं
ऊँची इमारतें की
क्या खता है
आखिर ऊँचाइयों से
कब दीखता है
धरातल
'कुछ' कुलबुलाता सा
नज़र आता है
'कीड़ों' की तरह
या कुछ परछाइयाँ
जो अहसास दिलाती हैं
शिखर पर होने का
किसी का बच्चा
कई दिन से भूखा है
तो हुआ करे
ज़िद करके
मेरे बच्चे ने तो
पीज़ा खा लिया है
ठिठुरती ठण्ड को कोई
सहन ना कर पाया
मुझे क्या,
मेरा बच्चा तो
नर्म बिस्तर से रूबरू है
क्यों ना हो,
आखिर 'हम' कमाते
किसके लिए हैं?
'अपने' बच्चो के लिए ही ना!
जब गरीबों की कोई
ज़िन्दगी ही नहीं
तो 'बचपन' कैसा?
थायरॉइड डिस्ऑर्डर और "ब्लॉग बुलेटिन" पर मेरी पहली ब्लॉग चर्चा
तो मैं समझू फ़क़त, मेहनत मेरी कामयाब हो गयी.
लांकि लक्षणों को देखकर ही दवा और डोज दी जाती है। लेकिन कुछ दवाएं हैं, जो आमतौर पर थायरॉइड के सभी मरीजों को दी जाती है। वे हैं :
मैं स्वयं हाइपरथायरॉइडिज्म का शिकार रहा हूँ, खुदा का शुक्र है कि इससे निजात पा सका...
मैंने भी अपने डॉक्टर की सलाह से इसका इलाज इनमास (INMAS) से ही कराया है. बहुत ही बेहतरीन अस्पताल है. इसलिए तभी सोचा था कि थायरॉइड डिस्ऑर्डर के ऊपर जानकारी इकठ्ठा करके सभी के सम्मुख रखूँगा.