कट्टरता से नफ़रत, नफ़रत से हिंसा और हिंसा से बर्बादी आती है!
किसी समुदाय के नाम, पहनावे या चेहरे-मोहरे को देखकर या फिर गौमाँस जैसे इल्जाम पर कट्टरपंथी तत्व लोगों को खुलेआम मार रहे हैं और ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं, जबकि उनसे कहीं बड़ी भीड़ उन बाज़ारों में या फिर ट्रेनों में मौजूद होती है। पर नफरत का आलम यह है कि वोह भीड़ चुप रहती है, बल्कि कई जगह तो कट्टरपंथियों में शामिल हो जाती है और मौके पर इतनी भारी भीड़ होने के बावजूदु पुलिस को गवाह तक नहीं मिलते...
पहले जब भी दंगे हुए और लोग मरे तब बचाने वाले और दंगाइयों का विरोध करने वाले खुलकर सामने आते थे, पर अब मौन समर्थन सामने आ रहा है। बल्कि विरोध करने वालों को देशद्रोही ठहराया जा रहा है, भले ही वोह 10 साल तक देश का उपराष्ट्रपति ही क्यों ना रहा हो।
क्या ऐसा होना किसी देश के अल्पसंख्यक समुदाय के लिए चिंता का सबब नही है? और अगर चिंता व्यक्त की गई तो उसपर विचार करके हल खोजने की जगह नफरत भरी प्रतिक्रिया देना क्या खुद में उसी नफरत को साबित नहीं कर रहा है, जिस पर चिंता ज़ाहिर की जा रही है?
मैं अपने दोस्तों की सूचि में मौजूद लोगों में भी ऐसी नफरत को देख रहा हूँ। हालाँकि हैरान नहीं हूँ, क्योंकि जानता हूँ कि कट्टरपंथी मुखर होते हैं और मासूम लोगों को बड़ी जल्दी अपनी ज़द में ले लेते हैं, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे मुल्क इसका जीता-जागता उदहारण हैं!
दरअसल कट्टरपंथी सवाल से डरते हैं, यह कभी नहीं चाहते कि कोई उनके ऊपर उंगली उठाए, उनके फैसलों पर 'सवाल' करे। वोह जो करते हैं, हर हाल में उसे सबसे मनवाना चाहते हैं, सो अब सवाल करने वाला देशद्रोही है। कट्टरपंथी हमेशा से ही सवाल और सवाल पूछने वालों से नफरत करते आए हैं, क्योंकि इनके पास सवालों के जवाब नहीं होते और ना ही जवाब देने की सलाहियत, केवल कुतर्क होते हैं। आप ईरान पर सवाल करेंगे तो यह तूरान का ज़िक्र छेड़ेंगे...
इन नफ़रत पालने वालों को
कहां परवाह है सत्य की
उन्हें बस नफरत है,
कुछ नामों से,
कुछ चेहरों से,
कुछ लिबासों से,
और अपने ख़िलाफ़
उठती हुई आवाज़ों से...
कट्टरता हमारे मस्तिष्क पर कब्ज़ा कर लेती है, जिससे हम विपरीत विचारधारा की तार्किक बातों को भी नहीं देख पाते। इंसानियत के दुश्मनों से सख़्ती से निपटने के लिए देश को एकजुट होना चाहिए, कट्टरपंथी किसी एक धर्म के नहीं होते, इसलिए हर तरफ के कट्टरपंथीयों के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी।
आम हिंदू आम मुस्लिम से नहीं लड़ता और ना ही आम मुस्लिम आम हिंदू से, यह कट्टरपंथी ही हैं जो राजनैतिक आकाओं के इशारों पर नफ़रतें फैलाते हैं। आज हमें यह समझना होगा कि समाज के अंदर फैली यह नफ़रतें हुई नहीं हैं बल्कि पैदा की गईं हैं, इसलिए मुक़ाबले के लिए साज़िशों को बेनक़ाब और मुहब्बतों की कोशिश करनी होंगी। सच्चाई यह है कि नफ़रत की राजनीति 'देशहित' की आड़ में 'देश हिट' कर रही है और इसका जवाब आपसी मौहब्बत और विश्वास है।
सहिष्णुता, नरमपंथ और मुहब्बत हमेशा से ही मेरे देश की ताकत रही है, इसलिए मैं उन्हें देशद्रोही मानता हूँ जो इसे नफ़रत में बदलना चाहते हैं। सत्ता के लिए नफ़रत की जो खेतियाँ बोई गईं उसकी फसल आज लहलहा रही है, इसलिए देश में हो रही सांप्रदायिक हत्याओं के ज़िम्मेदार वोह भी हैं जिन्होंने नफ़रत के कारोबारियों का समर्थन किया... यह आज की ज़रूरत है कि कट्टरपंथीयों से लड़ने के लिए नरमपंथियों को आगे आएं!
हालाँकि यह सच है कि हमारे देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब, आपसी मौहब्बत में अब वोह पहले वाली बात नहीं रही, आपसी रिश्ते कमज़ोर हो रहे हैं... पर हम कोशिश करें, अपने बच्चों को सही सीख दें, मुहब्बत सिखाएं तो शायद फिर से बात बन सकती है... वर्ना नफरत की राजनीति तो अपना काम कर ही रही है!
और अंत में बस इतना ही कहूंगा कि "जो लोग नफ़रत करते-करते ऊब गए हों वोह मुहब्बत करके देखें, खुशियाँ इसी में हैं!"