अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में देश को बदलाव की उम्मीद नज़र आती है। लेकिन इस बदलाव के लिए उन्हें राजनेताओं के घिसे-पिटे तरीके से हट कर चलना होगा। उन्हें साबित करना होगा कि वह देश के वर्तमान नेताओं से अलग हैं, उनके पास केवल वादे या विरोध नहीं है बल्कि नीतियाँ हैं।
अगर अरविन्द यह कहते हैं कि "एफडीआई देश के गरीबों के खिलाफ है", या यह कि "डीज़ल पर सब्सिडी वापिस ली जानी चाहिए" तो ऐसा तो अन्य राजनैतिक दलों के नेता भी बोलते हैं। बल्कि उनसे तो देश को यह अपेक्षा है कि वह बताते कि एफ.डी.आई. आखिर कैसे देश के गरीबों के खिलाफ है? इससे देश के गरीबों, किसानो खुदरा व्यापारियों को क्या-क्या नुक्सान उठाने पड़ेंगे। उन्हें यह समझाना चाहिए था कि 'वालमार्ट' ने अपनी सप्लाई-चैन को जिस तरह से सर्वश्रेष्ठ बनाया वह उससे भी अधिक मज़बूत बनाना जानते हैं। उन्हें प्लान देना चाहिए था कि आखिर कैसे वह भारतीय किसानो और खुदरा व्यापारियों के बिचौलियों को समाप्त करेंगे जिससे किसानो को उनका सही हक मिल सके। बल्कि उन्हें प्लान लेकर आना चाहिए कि वह किस तरह मिलावट करने वालों के खिलाफ कार्यवाही करेंगे, जिससे कि आज पूरा देश त्रस्त है। अगर देश को 'वालमार्ट' की कमियों के कारण 'वालमार्ट' नहीं चाहिए तो उसकी खूबियों को कैसे भारतीय कंपनियों का हिस्सा बनाया जाएगा?
अगर वह यह मानते हैं कि विदेशी कम्पनियाँ देश में नहीं आनी चाहिए तो फिर वह कैसे भारतीय कंपनियों को इस बात पर अमादा करेंगे की वह अपने कर्मचारियों को उनकी योग्यता अनुसार अधिक से अधिक वेतन देकर अपने लाभ को कम करें। अगर वह बदलाव की आशा जगाते हैं तो उन्हें इसका हल निकालना ही होगा कि किस तरह आज भी लाला कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को निम्नतम वेतन पर रखकर उनकी मज़बूरी का फायदा उठाती है और इसी कारण कितनी ही भारतीय प्रतिभाएं देश से पलायन पर मजबूर हो जाती हैं।
समझदारी केवल यह कह लेने भर में नहीं है कि "डीज़ल / रसोई गैस पर सब्सिडी वापिस ली जानी चाहिए" बल्कि इसमें है कि वह समझाएं कि आखिर डीज़ल / रसोई गैस पर सब्सिडी क्यों हटाई जानी चाहिए? या सब्सिडी कम ना करने से होने वाले नुक्सान के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। किस तरह आम आदमी के खून-पसीने की कमाई को अमीर ट्रांसपोर्टर्स और महंगी डीज़ल कार अथवा बिजली जेनरेटर्स के मालकों को फायदा उठाने से रोका जाएगा।
उन्होंने कहा कि दिल्ली में बिजली महंगी करने में सरकार और बिजली कंपनियों में सांठ-गाँठ है। यहाँ भी उन्हें सबूत अथवा तथ्य पेश करने चाहिए, तभी देश को उनमें और दूसरे नेताओं में फर्क पता चलेगा।
अगर वह यह मानते हैं कि विदेशी कम्पनियाँ देश में नहीं आनी चाहिए तो फिर वह कैसे भारतीय कंपनियों को इस बात पर अमादा करेंगे की वह अपने कर्मचारियों को उनकी योग्यता अनुसार अधिक से अधिक वेतन देकर अपने लाभ को कम करें। अगर वह बदलाव की आशा जगाते हैं तो उन्हें इसका हल निकालना ही होगा कि किस तरह आज भी लाला कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को निम्नतम वेतन पर रखकर उनकी मज़बूरी का फायदा उठाती है और इसी कारण कितनी ही भारतीय प्रतिभाएं देश से पलायन पर मजबूर हो जाती हैं।
समझदारी केवल यह कह लेने भर में नहीं है कि "डीज़ल / रसोई गैस पर सब्सिडी वापिस ली जानी चाहिए" बल्कि इसमें है कि वह समझाएं कि आखिर डीज़ल / रसोई गैस पर सब्सिडी क्यों हटाई जानी चाहिए? या सब्सिडी कम ना करने से होने वाले नुक्सान के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। किस तरह आम आदमी के खून-पसीने की कमाई को अमीर ट्रांसपोर्टर्स और महंगी डीज़ल कार अथवा बिजली जेनरेटर्स के मालकों को फायदा उठाने से रोका जाएगा।
उन्होंने कहा कि दिल्ली में बिजली महंगी करने में सरकार और बिजली कंपनियों में सांठ-गाँठ है। यहाँ भी उन्हें सबूत अथवा तथ्य पेश करने चाहिए, तभी देश को उनमें और दूसरे नेताओं में फर्क पता चलेगा।
केवल 'आरोप लगाने के लिए आरोप' तो मैं कम से कम पिछले 25 वर्ष से हर एक नेता से सुनता आ रहा हूँ। तो फिर उन्हें यह अपने तर्कों और योजनाओं के प्रारूप सामने रखकर यह दर्शना चाहिए कि बदलाव के लिए उनपर ही भरोसा क्यों करूँ?