चाइना का दुःसाहस और हमारा ढुलमुल रवैया


पिछले दिनों जिस तरह देश के प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि स्वयं चीनी राष्ट्रपति की मौजूदगी में गुजरात सरकार के द्वारा चीन के साथ व्यापारिक एमओयू पर साइन करने के बाद बाँटे गए नक़्शे में अरुणाचल प्रदेश और अक्साई चिन को विवादित क्षेत्र दिखाया गया, यह बिलकुल चीनी दावे पर हमारी सरकार के द्वारा मुहर लगाने जैसा है
साभार: Times Now
मोदी जी ने कहा था कि व्यापार उनकी रगों में है, वहीँ उनकी पार्टी भी केवल स्वयं को ही राष्ट्रवादी दर्शाती है... तो क्या यह भी किसी शिष्टाचार / व्यापार / राष्ट्रवादिता का हिस्सा है? मेरा प्रश्न यह है कि गूगल मैप को अपनी साइट पर दिखाने जैसी छोटी सी गलती पर 'आम आदमी पार्टी' को देशद्रोही बताने और 49 दिनों तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे उसके नेता अरविन्द केजरीवाल और AK49 जैसी स्तरहीन बातें कहने वाले नरेंद्र मोदी आखिर अब इस देशद्रोह पर मौन क्यों हैं?
कुछ दिन पहले आपने इलेक्ट्रॉनिक्स मिडिया को ज़ोर-जोर से चिल्लाते हुए सुना होगा कि मोदी जी के दो-टूक कहते ही चाइनीज़ आर्मी वापिस चली गई, जो कि बाद में फेक न्यूज़ निकली...
हालत यह है कि चाइना की आर्मी अभी तक हमारे क्षेत्र पर कब्ज़ा जमाए हुए है और वहां के राष्ट्रपति सेना को क्षेत्रीय युद्ध के लिए तैयार रहने का हुक़्म दे रहे हैं। उनके द्वारा सीमा विवाद पर कड़ा रुख अपनाया जा रहा है, लद्दाख में अतिक्रमण को उनके राष्ट्रीय हित से जोड़ा जा रहा है
हमें यह तय करना होगा कि हमारे लिए चाईना से व्यापारिक रिश्ते इतने ज़रूरी हैं कि उनका राष्ट्रपति हमारे मुल्क में आए तो हम उनके सामने स्वयं अपनी जगह को विवादित दिखा दें, वोह हमारे क्षेत्र पर कब्ज़ा करें, हमारे ही घर में घुसकर हमारे सैनिकों को आँख दिखाए, अपशब्द कहें, उनका घेराव करके कब्ज़ा जमाए और हम उनके साथ अपना रूहानियत का रिश्ता बताएं?
क्या हमारे लिए अपने देश में उनको व्यापार के ज्यादा अवसर देना, उनके उधार से स्मार्ट सिटी बनाना ज़्यादा ज़रूरी है या फिर अपने जवानों के मनोबल, उनकी इज्ज़त देश की संप्रभुता, सम्मान और अपनी ज़मीन की रक्षा करना?
जब तक चाईना अपना रवैया नहीं बदलता है, कम से कम तब तक तो हमें सख्त रवैया अपनाना ही चाहिए
कारगिल में पाकिस्तानी सेना के दुस्साहस पर हमारी सेना ने उन्हें फ़ौरन मज़ा चखाया था... मगर इस बार व्यापार की चिंता ज़्यादा नज़र आ रही है या फिर नोबेल पुरस्कार की! 
देश की संप्रभुता कहीं पीछे छूट गई लगती है।

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बड़ा खतरा है महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर


सर्वाइकल कैंसर के कारण विश्व में हर साल तक़रीबन 2 लाख महिलाओं की मृत्यु हो जाती है और हमारा देश इसके सबसे ज़्यादा खतरे वाले क्षेत्रों में शुमार होता है।
 


HPV अर्थात Human Papilloma Pirus इसके प्रमुख कारणों में से है, और HPV का प्रमुख कारण है Sexually Transmitted Infections (STIs) - जो कि पुरुष साथी के द्वारा प्राइवेट पार्ट्स की साफ़-सफाई का ध्यान ना रखना, मूत्र त्यागने के बाद प्राइवेट पार्ट्स को अच्छी तरह से ना धोना इत्यादि से भी हो सकता है।



इसके अलावा धुम्रपान तथा कम उम्र में शारीरिक संबंधों की शुरुआत से बचना और शारीरिक संबंधों में वफादारी भी सर्वाइकल कैंसर से बचाव में सहायक है।







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ऐसे किया था शहीद अब्दुल हमीद ने अपराजित मान्यता वाले पाकिस्तानी टैंकों का संहार

आज 4th बटालियन, ग्रेनेडियर में तैनात हवालदार अब्दुल हमीद की शहादत दिन है। 1965 युद्ध में पाकिस्तानी सेना का सीना चीर कर उस समय के अपराजेय माने जाने वाले उसके "पैटन टैंकों" को तबाह कर देने वाले 32 वर्षीय वीर अब्दुल हमीद आज ही के दिन खेमकरण सेक्टर, तरन तारण में शहीद हुए थे और उन्हें देश के सर्वोच्च सेन्य सम्मान परमवीर चक्र से नवाज़ा गया था। उनकी बहादुरी पर यह पुरूस्कार युद्ध के समाप्त होने से भी एक सप्ताह पहले ही, 16 सितम्बर 1965 को घोषित कर दिया गया था। इसके अलावा इन्हें सैन्य सेवा मेडल, समर सेवा मेडल और रक्षा मेडल से भी अलंकृत किया गया।

पाकिस्तान द्वारा "अमेरिकन पैटन टैंकों" के साथ रात के समय पर हमला किया गया था। जबकि उन टैंकों का सामना करने के लिए हमारे सैनिकों के पास न तो टैंक थे और ना ही कोई बड़ा हथियार, केवल साधारण सी 'थ्री नॉट थ्री रायफल' और 'लाइट मशीन गन' (Light Machine Gun ही थी। मगर उनके पास एक असाधारण चीज़ थी और वोह था मज़बूत हौसला और देश पर मर मिटने का जज़्बा!

हवलदार वीर अब्दुल हमीद की "गन माउनटेड जीप" भी हालाँकि पैटन टैंकों के सामने एक खिलौने जैसी ही थी, मगर उन्होंने अपनी जीप में बैठकर गन से पैटन टैंकों के कमजोर अंगों पर सटीक निशाना लगाना शुरू किया, जिससे शक्तिशाली टैंक ध्वस्त होना शुरू हो गए। उनकी इस तरकीब और सफलता से बाकी सैनकों का भी हौसला बढ़ गया। फिर क्या था, पाकिस्तान फ़ौज में भगदड़ मच गई। जंग के मैदान से भागते हुए पाकिस्तानी फौजियों का पीछा करते "वीर अब्दुल हमीद" की जीप पर एक गोला गिरा, जिससे वह बुरी तरह से घायल हो गए और दो दिन बाद यानी आज ही के दिन शहीद हो गए! ज्ञात रहे कि अकेले वीर अब्दुल हमीद ने ही सात "पाकिस्तानी पैटन टैंकों" को ध्वस्त किया था। 

"खेम करन" सेक्टर के "असल उताड़" गाँव में 'पैटन नगर' नाम से मेमोरियल  बनाया गया है, जो लड़ी गई इस लड़ाई में पैटन टैंकों की कब्रगाह बना था।

मज़े की बात यह है कि इस लड़ाई में शहीद अब्दुल हमीद के हौसले और उनकी साधारण "गन माउनटेड जीप" के हाथों हुई "पैटन टैंकों" की बर्बादी के कारण हैरान अमेरिकियों को पैटन टैंकों के डिजाइन की समीक्षा तक करनी पड़ी। मगर वोह शायद यह नहीं जानते थे कि 'पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है।'

अमर शहीद वीर अब्दुल हमीद की शहादत और देश पर मर मिटने के जज़्बे को सलाम!

जय हिन्द!





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सेवक या शासक?

कोई फर्क नहीं पड़ता, चाहे नरेन्द्र मोदी हों या मनमोहन सिंह, वाजपेयी हों या कोई और... कोई भी प्रधानमंत्री, जनता का सेवक तब तक नहीं हो सकता जब तक कि देश की जनता हद दर्जे तक असुरक्षित हो और वोह लाल किले से झंडा फहराने के लिए आए तो 700 से ज़्यादा सीसीटीवी कैमरे और सुरक्षाबलों के 30-35 हज़ार जवानों से घिरा हो। यहाँ तक कि इतने भारी-भरकम बंदोबस्त के बवाजूद आस-पास के रिहायशी घरों को अपनी खिड़कियाँ बंद करने पर मजबूर किया गया हो।

जबकि देश की महिलाऐं और बच्चे बिना कपड़ो के ज़िन्दगी गुजारते हों और उनके कपड़े देश ही नहीं दुनिया के मशहूर ड्रेस डिज़ाईनर ट्रॉय कॉस्टा जैसों के द्वारा डिज़ाईन किये जा रहे हों! 

माहिलाओं के सम्मान की बात करते हो जबकि ना केवल देश की संसद में अनेकों बलात्कार के आरोपी बैठे हों, बल्कि कैबिनेट में भी बलात्कार के आरोपी मंत्री बने बैठे हो!

पता नहीं वोह राजनेता जनता के सेवक कैसे बन सकते हैं जिनपर देश के लाला उद्योगपति चुनावों में खर्च के नाम पर सट्टा लगाते हों???





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पेशेवर मंत्रालय और ग़ैर-पेशेवर मंत्री

लोगो को लगता है कि किसी अनपढ़ के मंत्री या किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने तथा किसी कम पढ़े लिखे या अनप्रोफेशनल के प्रोफेशनल मंत्रालय को देखने में कोई फर्क ही नहीं है?

बंधुओं योग्यता पढ़ाई की मोहताज नहीं होती, मगर इसका मतलब यह नहीं कि कालीन बनाने के हुनरमंद को सोफ्टवेयर बनाने का काम दे दो। योग्यता और पेशेवर योग्यता में फर्क होता है... किसी कम्पनी का मालिक होने का मतलब यह नहीं कि वह कम्पूटर प्रोग्रामिंग से लेकर फाइनेंस और मार्केटिंग से लेकर ग्राफ़िक्स डिजाइनिंग तक करने की क्षमता स्वयं रखता हो, बल्कि उसे इस तरह के पेशेवर कार्यों के लिए पेशेवर लोग रखने पड़ेंगे। इसलिए उसके ग़ैर-पेशेवर या पेशेवर होने से फर्क नहीं पड़ता, शिक्षित होने से भी उतना फर्क नहीं पड़ेगा जितना अयोग्य होने से पड़ेगा।

आम से काम तो सभी कर सकते हैं, केवल योग्यता की आवश्यकता होती है। मगर पेशेवर कार्यों के लिए पेशेवर लोगो को ही आगे करना चाहिए...

अब तक चलता रहा तो कब तक चलता रहेगा? अगर मेरी बात समझ रहें हैं तो आपको याद होगा कि अब स्वास्थ मंत्री डॉक्टर ही बनने लगे हैं... ऐसे ही खेल मंत्री किसी खिलाड़ी को बनाया जाना चाहिए और देश में उच्च शिक्षा और साक्षरता जैसे अहम काम की ज़िम्मेदारी शिक्षा के क्षेत्र के किसी उच्च शिक्षित व्यक्ति को ही मिलनी चाहिए, बारहवीं वाले को नहीं! जिससे शिक्षा में अनिच्छुक लोगों में गलत सन्देश ना जाए और उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों को उनकी हसरतों / ज़रूरतों के मुताबिक़ अवसर प्राप्त हो सकें... जान-पहचान के बल पर तो और भी मंत्रालय दिए जा सकते हैं।

यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति साक्षरता के लिए लोगों को प्रोत्साहित कर सकता है, जो स्वयं स्नातक तक की डिग्री ना रखता हो तथा स्वयं अपनी शिक्षा को लेकर हलफनामों में गलत जानकारी देता रहा हो?

अगर कोई यह तर्क देता है कि पढ़े-लिखों ने सिवाए घोठालों के क्या किया? तो यहाँ यह समझना आवश्यक है कि शिक्षा भ्रष्ठ होने से नहीं रोक सकती जबतक नैतिकता ना हो! और इससे यह परिपाठी भी नहीं बनाई जा सकती है कि अगर कोई प्रोफेशनल व्यक्ति सफल नहीं हुआ इसलिए अशिक्षित को ज़िम्मेदारी सौंपी जाए!

यहां बात किसी के सफ़लता पूर्वक करने या ना करने की है भी नहीं, बल्कि पेशेवर कार्यों के नियम पेशेवर तरीके से ही बनने चाहिए, कभी अच्छे रिज़ल्ट नहीं भी आएं, तब भी...  मतलब अगर कोई ग़ैर-पेशेवर सफल भी हो जाए तब भी इसे नियम नहीं बनाया जाना चाहिए!





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भारत-पाक संबंध: आहिस्ता चलिए!

पाकिस्तान से बातचीत का विरोध की जगह स्वागत होना चाहिए, मगर यह भी हक़ीक़त है कि बिना किसी ठोस शुरुआत के सीधे-सीधे उनके प्रधानमंत्री को बुलाने से पब्लिसिटी के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर रिश्तों को ठीक करना है तो इसके लिए कोशिश दोनों तरफ से होनी चाहिए। आंखमूंद कर और एकदम से विश्वास नुक्सान दे सकता है, पुराना अनुभव भी इसका गवाह रहा है।


बल्कि संबंधों को बेहतर बनाने के लिए छोटे-छोटे निर्णयों के साथ वक़्त देना चाहिए। वक़्त इसलिए भी क्योंकि पाकिस्तान में सारी ताक़त सरकार के पास नहीं है। यह एक हकीक़त है कि वहां की सरकार चाह कर भी सबकुछ नहीं कर सकती। हमारे लिए यह याद रखना अत्यंत आवश्यक है कि ग्राउंड रिएलिटीज़ पर काम किये बिना करे गए इसी तरह के प्रयास पर वाजपेयी जी को भी धोखा खाना पड़ा था। और उसकी भरपाई के लिए कारगिल युद्ध में हमारे सैनिकों को जान गंवानी पड़ी थी।

बल्कि मेरा यह मानना है कि सम्बन्धो के विस्तार के लिए सबसे पहले दोनों तरफ के सैनिक-असैनिक बंदियों को रिहा करने, व्यापार को आसान बनाने और एक दूसरे देश में कारोबारियों और आम नागरिकों की आवाजाही को आसान बनाने जैसे कदम उठाए जाने चाहिए। सबसे ज़रूरी है कि अच्छे संबंधों के लिए दोनों देशों की जनता तैयार हो और इसके लिए परस्पर विश्वास का बहाल होना आवश्यक है। बल्कि मेरा मानना है कि सम्बन्धो की बहाली तभी संभव है, जबकि इसके लिए जनता की बीच में से आवाज़ उठे!

पाकिस्तान से संबंधों पर मनमोहन सरकार की नीति बेहतरीन थी, हालंकि उनकी सरकार ने भाजपा के ज़बरदस्त दबाव के कारण इस पर कुछ ज़्यादा ही सुस्ती से काम किया। कम से कम भाजपा सरकार के पास बिना किसी दबाव के काम करने का एक अच्छा मौका है और नरेन्द्र मोदी को इसका फायदा उठाना चाहिए।




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क्या EVM हैक करना संभव है?

फेसबुक / ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर आजकल इस तरह की फोटो लगातार शेयर्स की जा रही हैं, जिसमें एक तथाकथित भाजपा कार्यकर्ता के द्वारा फेसबुक पर एक फोटो शेयर की गई है। जिसमें वह अपने घर पर चुनाव से पहले EVM मशीन के साथ दिखाई दे रहा है और उसके मित्र उससे इस बारे में कॉमेंट कर रहे हैं।

इस पर पठान परवेज़ लिखते हैं कि "क्या हम चुनाव से ठीक एक दिन पहले EVM को अपने घर ला सकते हैं? यहाँ इस फोटो में एक भाजपा सपोर्टर EVM के साथ अपने घर पर दिखाई दे रहा है। वाराणसी में प्रयोग होने वाली EVM में 42 उम्मीदवार और एक नोटा को मिलकर टोटल 43 बटन होने चाहिए, जो कि फोटो में दिखाई भी दे रहे हैं।
 
आपसे अनुरोध है कि इस फोटो को इलेक्शन कमीशन को फॉरवर्ड करें, जिससे कि सत्यता की जाँच हो सके. यह एक बड़ा फ्रॉड दिखाई दे रहा है, अगर सच हुआ तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा।"

इसी फोटो पर समीर लिखते हैं कि "बीजेपी समर्थको द्वारा इस तरह की फोटो अपलोड की जा रही है। मै सभी राजनितिक दलों और चुनाव आयोग से यह जवाब चाहूँगा कि  वो इस तरह की खबर पता लगने के बाद भी शांत क्यों बैठा है? चाहे कुछ भी है, चुनाव आयोग को इसका जवाब देना पड़ेंगा की सरकारी मशीन किसी पार्टी विशेष के कार्यकर्ता के घर कैसे जा सकती है। क्या इसमें चुनाव आयोग भी मिला हुआ है?"

इस विषय पर मैंने चुनाव से पहले ही 5 अप्रेल को शबनम हाशमी की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का ज़िक्र करते हुए फेसबुक पर स्टेटस डाला था:

"क्या इलेक्शन कमीशन की राजनैतिक दलों से हैक हो सकने वाली वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर कोई सेटिंग हो सकती है? यह सवाल खड़ा किया है शबनम हाशमी ने। उन्होंने बताया कि दो दिन पहले खुद चुनाव आयोग ने ईवीएम हैकिंग को पकड़ा है, जहां किसी भी बटन को दबाने पर वोट भाजपा के खाते में ही गया था, मगर इसके बावजूद कोई कार्यवाही नहीं हो रही है। उन्होंने एक फिल्म के द्वारा समझाया कि कैसे ईवीएम की मॉस हैकिंग की जा सकती है, मतलब एक साथ हज़ारों मशीनों से मन-पसंद वोट डलवाए जा सकते हैं।

उन्होंने बैलेट पेपर्स के द्वारा चुनाव कराए जाने की मांग की, जिससे कि वोट करने वाले को पता रहे कि उसका वोट किस प्रत्याशी को पड़ा। इस मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए शबनम हाशमी।"

इस बीच हरियाणा और महाराष्ट्र जैसी कई जगहों से भी यह खबरे आईं की EVM पर कोई भी बटन दबाने से एक ही उम्मीदवार को वोट डल रहे हैं।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि चुनाव नतीजा किसी EVM हैक के कारण आया है! वैसे भी मैं ऐसा इलज़ाम बिना किसी ठोस सबूत के नहीं लगा सकता हूँ। मैं सिर्फ इस ओर ईशारा कर रहा हूँ कि कई लोगो ने यह दावा किया है कि EVM आसानी से और एक साथ बड़ी तादाद में हैक हो सकती हैं। और इसके साथ ही मैं यह मालूम करना चाहता हूँ कि पार्टी विशेष के कार्यवाकर्ताओं के इस तरह के फोटो पर जाँच क्यों नहीं हुई? और अगर हुई तो क्या हुई? यह आम लोगो को जानने का हक़ है।

साथ ही साथ आम जनता को यह जानने का अधिकार है कि EVM पर चुनाव आयोग किस तरह की सिक्योरिटी अपनाता है। मेरी मांग है कि इसे और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए, ताकि वोटर को पता चल सके कि उसका दिया वोट उसके पसंद के प्रत्याशी को ही मिलता है या नहीं। यहाँ यह भी एक पॉइंट है यह सूचना वोट की गोपनीयता के उसूल के भी खिलाफ है कि लोकसभा चुनाव में ब्लॉक / कॉलोनी स्तर अथवा विधानसभा स्तर पर किस पार्टी को कितने मत मिले। बैलेट पेपर्स में गिनती से पहले सारे बैलेट्स को पहले मिलाया जाता था, जिससे कि क्षेत्रवार नतीजा पता नहीं चल पाएं, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है।
अगर चुनाव लोकसभा सीट का है तो उम्मीदवारों को जानकारी केवल सीट के स्तर पर ही मिलनी चाहिए, जिससे कि जीतने के बाद सांसद किसी क्षेत्र विशेष से दुर्भावना से काम ना करे अथवा किसी तरह का पक्षपात नहीं कर सके।


देशनामा.कॉम पर पढ़ें:







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चुनाव, सर्वेक्षण और रियेक्शन

पता नहीं लोग चुनावी सर्वों को लेकर इतने उत्साहित या फिर नाराज़ क्यों हैं? चुनावी प्रक्रिया समाप्त होने से पहले तो फिर भी इनकी विश्वसनीयता पर संदेह किया जा सकता है,  Paid Servey का आरोप भी ठीक हो सकता है, लेकिन एक्ज़िट पोल पर इतनी हाय-तौबा करना ठीक नहीं है। 

मानता हूँ कि सर्वेक्षण करने का जो तरीका देश में इस्तेमाल किया जाता है उसमें अनेक कमियाँ हैं, मगर यह कमियाँ ना भी हो तब भी इसकी अपनी एक सीमा है। सर्वेक्षण पूरी तरह से 'लिए गए सेम्पल और सर्वे के लिए गए अधिकारी' की काम के प्रति निष्ठा पर निर्भर करता है। गाँव, कस्बों और शहरों में एक ही विधि से किये गए सर्वेक्षण दोषपूर्ण हो सकते हैं, वहीँ अगर अलग-अलग समूहों अथवा सोच के हिसाब से गहन अध्यन ना किया जाए तो परिणामों से मिलान दूर की कौड़ी साबित होगा। इसी के साथ किसी एक तरह के क्षेत्र अथवा समूह में किया गया सर्वेक्षण दूसरी जगह अथवा समूह का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।

हमें यह समझना होगा कि सर्वेक्षण का काम केवल रुझान बताना ही होता है, इनको कभी भी शत-प्रतिशत सही नहीं समझा जाता है और ना ही समझा जाना चाहिए। ठीक ऐसे ही पूरी तरह नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जाता और किया भी नहीं जाना चाहिए।





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क्या चुनावी सर्वे भी फिक्स होते हैं?

देश में चुनाव के मौसम में सर्वे कंपनियों का बोलबाला है। मिडिया चैनल्स के साथ मिलकर यह कम्पनियां अपने सर्वे को ऐसे पेश करती हैं, जैसे वोह कुल जनसँख्या के कुछ प्रतिशत लोगो पर किया गया सर्वे नहीं बल्कि चुनाव का नतीजा हो।  सर्वे वाले प्रोग्राम की टेग लाइन कुछ इस तरह की होती हैं -  "देश में अमुक पार्टी को इतनी सीटें मिलने जा रही हैं" या फिर "देश में फिलहाल अमुक पार्टी की ज़बरदस्त हवा चल रही है"

हालाँकि पिछले कई चुनाव से यह सर्वे का काम चल रहा है, मगर अक्सर चुनाव के नतीजे इन सर्वों के उलटे ही होते हैं, चैक करने के लिए देश में हुए पुराने चुनावों के नतीजों और सर्वे पर नज़र डाली जा सकती है। पिछले दिनों सर्वे एजेंसियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन से भी इस फिक्सिंग का खुलासा हो चूका है।

 मेरे हिसाब से तो हमारे देश के चुनावी सर्वे हर इलेक्शन में किसी ना किसी पार्टी के द्वारा जनता का ब्रेनवाश करने की कोशिश से अधिक कुछ भी नहीं है।


क्या यह सर्वे भी Paid Media की तरह फिक्स होते हैं?

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए जब मैंने कुछ प्रमुख सर्वे कम्पनियों की पड़ताल की तो पाया:

देश की चुनावी सर्वे करने वाली प्रमुख कंपनी सी-वोटर के संस्थापक और मैनेजिंग डायरेक्टर हैं यशवंत देशमुख, जो कि जनसंघ के संस्थापक सदस्य नाना जी देशमुख के पुत्र हैं। गौरतलब रहे कि सी-वोटर इंडिया टुडे ग्रुप के साथ मिलकर सर्वे करता रहा है।

दूसरी बड़ी सर्वे कंपनी है हंसा ग्रुप, जिसने एनडीटीवी के साथ मिलकर एनडीए को फुल मेजोरिटी का सर्वे दिखाया था। इसके पूर्व सीईओ हैं तुषार पांचाल, और यह वही तुषार हैं जो अभी नरेन्द्र मोदी की पीआर मार्केटिंग संभाल रही अमेरिकन कम्पनी APCO Worldwide के सीनियर डायरेक्टर हैं।

क्या ऐसे में आपको लगता है कि इस तरह के सर्वे विश्वसनीय हो सकते है?

मिडिया पर जिस तरह भाजपा की लहर और कांग्रेस पर कहर को दिखाया जा रहा है, क्या किसी को याद है कि अभी दिसंबर में दिल्ली विधानसभा इलेक्शन में किसकी लहर और किसपर कहर दिखाया जा रहा था और जनता ने फैसला क्या दिया? 

याद नहीं 'आप' को केवल 8 सीट और भाजपा को पूर्ण बहुमत वाली लहर मिडिया चैनल्स पर थी। जबकि दिल्ली से ज़्यादा कोई और शहर न्यूज़ चैनल क्या देखता होगा?

दरअसल यह और कुछ नहीं बल्कि पैसे के बल पर लोगो के दिलों में अपनी बात बैठा देने की धूर्तता से अधिक कुछ भी नहीं, और वोह भी केवल इसलिए कि वोटिंग के लिए आपकी सोच और असल मुद्दे इनकी मार्किटिंग के बल पर गौण बनाए जा सकें।


ऐसे में एक सर्वे कुछ ऐसा भी हुआ है, जो ज़्यादातर सोशल मिडिया पर घूम रहा है, जबकि मेनस्ट्रीम मिडिया ने इसे भाव ही नहीं दिया है।

"TRUE VOTERS" सर्वे के हिसाब से राज्य और बीजेपी की संभावित सीट्स इस प्रकार हैं:

उत्तर प्रदेश 80 -- बीजेपी - 16
महाराष्ट्र 48 -- बीजेपी - 09
आन्ध्र प्रदेश 42 -- बीजेपी - 03
पश्चिम बंगाल 42 -- बीजेपी - 01
बिहार 40 -- बीजेपी - 11
तमिल नाडु 39 -- बीजेपी - 00
मध्य प्रदेश 29 -- बीजेपी - 16
कर्नाटक 28 -- बीजेपी - 08
गुजरात 26 -- बीजेपी - 17
राजस्थान 25 -- बीजेपी - 16
उड़ीसा 21 -- बीजेपी - 02
केरल 20 -- बीजेपी - 00
असम 14 -- बीजेपी - 01
झारखंड 14 -- बीजेपी - 03
पंजाब 13 -- बीजेपी - 01
छत्तीसगढ़ 11 -- बीजेपी - 07
हरियाणा 10 -- बीजेपी - 03
दिल्ली 7 -- बीजेपी - 04
जम्मू और कश्मीर 6 -- बीजेपी - 01
उत्तराखंड 5 - बीजेपी - 02
हिमाचल प्रदेश 4 -- बीजेपी - 02
अरुणाचल प्रदेश 2 -- बीजेपी - 00
गोवा 2 -- बीजेपी - 02
त्रिपुरा 2 -- बीजेपी - 00
मणिपुर 2 -- बीजेपी - 00
मेघालय 2 -- बीजेपी - 00
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह 1 - बीजेपी - 00
चंडीगढ़ 1 -- बीजेपी - 00
दमन और दीव 1 -- बीजेपी - 00
दादरा और नगर हवेली 1 -- बीजेपी - 00
नागालैंड 1 -- बीजेपी - 00
पुदुच्चेरी 1 -- बीजेपी - 00
मिज़ोरम 1 -- बीजेपी - 00
लक्षद्वीप 1 -- बीजेपी - 00
सिक्किम 1 -- बीजेपी - 00
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कुल - 123 सीट्स. इसमें 10% कम या ज्यादा होने पर भी बीजेपी 140 का आँकड़ा पार नहीं कर पा रही है.


आप क्या कहते हैं?

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नफ़रत हमारा रास्ता नहीं है

आज कल चारो ओर नफ़रत की खेती हो रही है और लोग मुहब्बत के फूल खिलने के इंतज़ार में हैं... जब से होश संभाला है तब से मेरा पाला अक्सर इन दो सोच वालों से पड़ता है, आपका भी पड़ता होगा... एक यह कि भाजपा आएगी तो मुसलमान बर्बाद हो जाएँगे और दूसरी यह कि कांग्रेस हमारी छुपी दुश्मन है, इसने कभी हमारा भला नहीं किया। और मुझे शुरू से चिढ़ होती है इस तरह की सोच से। इस बात से डरना छोड़ दो कि कोई आएगा तो हम ख़त्म हो जाएँगे...

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरें-जहाँ हमारा।।

हमें अपने दिल में यह गाँठ बांधनी होगी कि हम कोई स्पेशल नहीं हैं, कोई मोदी/राहुल/मुलायम/माया हमारी मदद करने नहीं आएगा, बल्कि अपनी मदद हमें खुद ही करनी होगी। 

मुसल्मानों को सबसे ज़्यदा नुक्सान जिस सोच ने किया है, मानता हूँ कि उसे भाजपा की नीतियों ने बढने में मदद की और कांग्रेस जैसी पार्टियों ने बढ़ने दिया है, लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार हम ही हैं। नफरत की शुरुआत तो एकतरफ़ा हो सकती है, लेकिन नफ़रत कभी भी एकतरफा नहीं फ़ैल सकती।

हम अपने दिल पर हाथ रख कर विचार करें कि इन नफरतों / अविश्वास को ख़त्म करने की कितनी ईमानदार कोशिश हमने की। दोस्तों मेरे नबी ने बुराई का विरोध करना सिखाया है, बुरों से नफ़रत करना हरगिज़-हरगिज़ नहीं सिखाया। 

मक्का वालों ने आप (सल.), आपके घरवालों और साथियों को बेईज्ज़त करने और जान से मारने की हर संभव कोशिश की। जब आप नमाज़ के लिए खड़े होते थे तो ऊंट की आंतडियाँ आपके ऊपर डाल दी जाती थीं, रास्ते से गुज़रते थे तो कूड़ा डाला जाता था। यहाँ तक कि आपको खुद अपने ही शहर को छोड़कर मदीना जाना पड़ा। याद नहीं है कि आप (सल.) के चाचा हमज़ा (रज़ी) की हत्या करने के बाद उनका सीना चीर कर दिल और जिगर को निकाला गया था? मगर मक्का फतह पर जानते हो मुहम्मद (सल.) ने क्या किया? क्या उन्होंने उन ज़ालिमों से बदला लिया? नहीं... बल्कि हर एक ज़ुल्म की आम माफ़ी दे दी।

कसम से यह सारी नफ़रतें मठाधीशों ने फ़ैला रखी हैं, सिर्फ अपनी-अपनी दूकानदारियाँ चलाने के लिए। मज़हब तो नफ़रतें फैला ही नहीं सकते। इसलिए अगर जिंदगी से नफ़रतें ख़त्म करना चाहते हो तो इनकी ग़ुलामी से आज़ाद हो जाओ और जुट जाओ समाज से नफ़रत के खात्में में।





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